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________________ श्री सुमतिवाचक के शिष्य गुणचन्द्रकृत महावीरचरियं (10-11वीं सदी) तथा देवभद्रसूरिकृत 'महावीरचरियं' तथा शीलांकाचार्यकृत चउप्पन्नमहापुरिसचरियं के अन्तर्गत वड्ढमाणचरियं (वि.सं. 925) प्रमुख हैं। अपभ्रंश-भाषा में जिनेश्वरसूरि के शिष्य द्वारा विरचित महावीरचरिउ" महत्त्वपूर्ण रचना है। संस्कृत-भाषा में जिनरत्नसूरि के शिष्य अमरसूरिकृत 'चतुर्विंशतिजिनचरित्रान्तर्गत' 'महावीरचरितम् (13वीं सदी), हेमचन्द्राचार्यकृत त्रिषष्टिशलाकापुरुष-चरितान्तर्गत महावीरचरित (13वीं सदी) तथा मेरुतुंगकृत महापुराण' के अन्तर्गत महावीरचरितम्" (14वीं सदी) उच्चकोटि की रचनाएँ हैं। ___ उक्त वर्धमानचरितों में से प्रस्तुत 'वड्ढमाणचरिउ' की कथा का मूलस्रोत आचार्य गुणभद्रकृत उत्तरपुराण' के 74वें पर्व में ग्रथित 'महावीरचरित्र' एवं महाकवि असगकृत 'वर्धमानचरित्र' है। यद्यपि विबुध श्रीधर ने इन स्रोत-ग्रन्थों का उल्लेख 'वड्ढमाणचरिउ' में नहीं किया है, किन्तु तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट है कि उसने उक्त वर्धमानचरित्रों से मूल-कथानक ग्रहण किया है। इतना अवश्य है कि कवि श्रीधर ने उक्त स्रोत-ग्रन्थों से घटनाएँ लेकर आवश्यकतानुसार उनमें कुछ कतर-ब्यौंत कर मूलकथा को सर्वपृथक् स्वतन्त्र, अपभ्रंश-काव्योचित बनाया है। ___ गुणभद्र ने मधुवन-निवासी भिल्लराज पुरुरवा के भवान्तर-वर्णनों से अपना ग्रन्थारम्भ किया है। गुणभद्र द्वारा वर्णित सती चन्दनाचरित", राजा श्रेणिकचरित" एवं अभयकुमारचरित", राजा चेटक एवं रानी चेलनाचरित', जीवन्धरचरित", राजा श्वेतवाहन”, जम्बूस्वामी, प्रीतिंकर मुनि", कल्किपुत्र अजितंजय तथा आगामी तीर्थंकर आदि शलाकापुरुषों के चरितों के वर्णन" कवि असग की भाँति ही विबुध श्रीधर ने भी अनावश्यक समझकर छोड़ दिये हैं । गुणभद्र ने मध्य एवं अन्त में दार्शनिक, आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक एवं आचारमूलक विस्तृत-विवेचन किया है। किन्तु विबुध श्रीधर ने ग्रन्थ के मध्य में तो उपर्युक्त विषयों से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक-नामोल्लेख मात्र करके ही काम चला लिया है तथा अन्त में भी सैद्धान्तिक एवं दार्शनिक विषयों को संक्षिप्तरूप में प्रस्तुत किया है। भवावलियों को भी उसने संक्षिप्तरूप में उपस्थित किया है। इसकारण कथानक अपेक्षाकृत अधिक सरस एवं सहज-ग्राह्य बन गया है। ___ कवि श्रीधर ने कथावस्तु के गठन में यह पूर्ण-प्रयास किया है कि प्रस्तुत पौराणिक-सम्बन्ध-स्थापन तथा अन्तर्कथाओं का यथास्थान-संयोजन कुशलतापूर्वक किया जाय । विविध पात्रों के माध्यम से लोक-जीवन के विविध-पक्षों की सुन्दर-व्याख्या प्रस्तुत की गयी है। कथावस्तु के रूप-गठन में कवि ने योग्यता, अवसर, सत्कार्यता एवं रूपाकृति नामक तत्त्वों का पूर्ण ध्यान रखा है। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 0027
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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