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________________ वृ उशा के - भिक्षा से प्राप्त भोजन पाँच प्रकार का होता है 7'मतानुसार 1. माधुकर 2. प्राक्प्रणीत, 3. अयाचित, 4. तात्कालिक, 5. उपपन्न ( भक्त - शिष्यों या अन्य लोगों द्वारा मठ में लाया गया भोजन ) । इनमें से जैन मुनि का भोजन 'माधुकर' तथा 'अयाचित' होता है । जैनग्रन्थों में भिक्षावृत्ति के निम्नलिखित नामों का उल्लेख मिलता है— 1. उदराग्निप्रशमन, 2. अक्षमृक्षण, 3. गोचरी, 4. श्वभ्रपूरण और 5. भ्रामरी या मधुकरी वृत्ति । इनमें से आहारदाता पर भाररूप बाधा पहुँचाये बिना कुशलता से भ्रमर की तरह आहार ग्रहणा करना 'भ्रामरी वृत्ति' है। जैसे भ्रमर बिना म्लान किए ही द्रुमपुष्पों से थोड़ा रस पीकर अपने को तृप्त कर लेता है, वैसे ही लोक में मुक्त (अपरिग्रही ) श्रमण या साधु दानभक्ति (दाता द्व दिये जाने वाले निर्दोष आहार) की एषणा में उसीप्रकार रत रहते हैं, जैसे भ्रमर पुष्पों में 38 इन समताओं के अतिरिक्त अनेक विषमतायें भी हैं, जिनकी चर्चा अन्यत्र अपेक्षित है। सन्दर्भ-सूची 2. प्रवचनसार, 220-221। 1. वृहदारण्यक उपनिषद्, 2/4/1-51 3. वही, 224 4. वृहदारव्यकोपनिषद्. 2/4/1, 3/5/11 5. डॉ. रमेशचन्द्र जैन : पद्मचरित में प्रतिपादित भारतीय संस्कृति, पृ. 65-661 6. ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यतः पद्मपुराण 6/209 । 7. डॉ. फूलचन्द्र प्रेमी : मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 144 8. कल्पसूत्र चूर्णि 284 एवं कल्पसूत्र सुबोधिका टीका पत्र, 190-191। 9. मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 121 । 10. मनु. 6/4/1, 43-44, वसिष्ठ धर्म सूत्र 12-15, शंख 7/61 11. धर्मशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग, पृ. 491 12. प्रवचनसार, 203-204 14. गिरिकंदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा । ठाणं मूलाचार 10/59 ।। 15. भगवती आराधना 232 । पृ.618 1 17. मनु. 6/41, एवं 49, गौतम 3 / 11 । 18. प्रवचनसार, 240 19. वही, 1941 20. मनुस्मृति 6/40, 47-48, याज्ञ. 3/61, गौतम 3/23 । 21. वसिष्ठधर्म 10/7, शंख 7/3, आदिपर्व 119/12-5 या 10 घर । 22. एककालं चरेद् भैक्षं न प्रसज्येत विस्तरे । भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति । । - मनु. 6/55 23. वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदि सयण भदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च । । - प्रवचनसार, 208 24. इन्द्रियाणांनिरोधेन रागद्वेषक्षयेण च। अहिंसया च भूतानाभमृतत्वाय कल्पते । । - मनु. 6/ 60 25. ज्ञानार्णव, 20 / 1। 26. वही, 23/4 27. वही, 8/32 28. सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्धयते। दर्शनेन विहीस्तुं संसारं प्रतिपद्यते । । - मनु. 6/74 29. ज्ञानार्णव, 6/1 । 30. मनुस्मृति, 6/50-51। 31. मूलाचार, 6/38-40 । 32. मनुस्मृति 6/57, एवं 59, वसिष्ठ 10/21-22 एवं 25 याज्ञ. 3/591 33. प्रवचनसार, 229 । 34. प्रवचनसार, अमृतचन्द्राचार्य टीका, गाथा 229 । 35. दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं पिवेज्जलम्। सत्यपूतं वदेद्वाक्यं मनःपूतं समाचरेत् । । - मनु. 6/46 36. वायुपुराण, 1/18/17 37. स्मृतिमुक्ताफल (पृ. 200 ) एवं यतिधर्मसंग्रह (पृ. 74-75 ) में उद्धृत । 38. दशवैकालिक, 1/2-3। 090 प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 2002 13. वृहत्कल्पसूत्र 3, पृ. 69 1 विरागबहुलं धीरो भिक्खु णिसेवेऊ ।। 16. भगवती आराधना विज . टी. 421,
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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