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________________ कहते हैं तथा जो पढ़ते ही सिद्ध हो अर्थात् जो मन्त्र पढ़ने मात्र से सिद्ध हो जाता है, वह 'पठित-सिद्ध-मन्त्र' है। इन विद्याओं एवं मन्त्रों को प्रदान करने की आशा देकर तथा उनका माहात्म्य बतलाकर दाता को आहारदान हेतु प्रेरित कर आहार ग्रहण करना अथवा आहारदायक देवी-देवताओं को विद्या तथा मन्त्र से बुलाकर उनको आहार के लिए सिद्ध करना 'विद्या-मन्त्रदोष' है।" अप्रतिपूर्णोदर भोजन संन्यासी को भरपेट भोजन नहीं करना चाहिये, उसे केवल उतना ही पाना चाहिये, जिससे वह अपने शरीर एवं आत्मा को एक साथ रख सके, उसे अधिक पाने पर न तो सन्तोष या प्रसन्नता प्रकट करनी चाहिए और न कम मिलने पर निराशा।" ___ जैनग्रन्थ 'प्रवचनसार' में पूरा पेट न भरे हुए (अपूर्णोदर या ऊनोदर अथवा अवमौदर्य) आहार को ही 'युक्ताहार' कहा है, क्योंकि वही अप्रतिहत (विघ्नरहित) आत्मस्वभाव से जुड़नेवाला है। पूर्णोदर आहार तो प्रतिहत-योगवाला होने से कथंचित् हिंसायतन होता हुआ युक्त नहीं है। पूर्णोदर-आहार करनेवाला प्रतिहत-योगवाला होने से वह आहार योगी का आहार' नहीं है। दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं ' संन्यासी को भलीभाँति भूमि-निरीक्षण करके चलना चाहिये, पानी छानकर पीना चाहिये, सत्य से पवित्र वाणी बोलना चाहिये तथा मन से पवित्र होकर आचरण करना चाहिये। जैनमुनि की चर्या में समिति के भेदों में प्रथम ईर्यासमिति' है। चार हाथ आगे की भूमि को देखते हुए चलना 'ईर्यासमिति' है। पानी छानकर पीने का व्रत तो गृहस्थावस्था में ही प्रारम्भ हो जाता है। पञ्चमहाव्रतों में दूसरा व्रत सत्यमहाव्रत' है तथा मन की पवित्रता का सम्बन्ध 'मनोगुप्ति' से है। 'वायुपुराण' के अनुसार संन्यासी को मांस या मधु का सेवन नहीं करना चाहिये।" आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है ऍक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधु-मंसं ।। -(प्रवचनसार, 229) वास्तव में वह आहार (युक्ताहार) एक बार, ऊनोदर, यथालब्ध (जैसा प्राप्त हो वैसा), भिक्षाचरण से, दिन में, रस की अपेक्षा से रहित और मधुमाँसरहित होता है। इसकी टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है- अमधुमांसं एवाहारो युक्ताहार:, तस्यैवाहिसायतनत्वात् । समधुमांसस्तु हिंसायतनत्वान्न युक्तः । ___मधु और मांस से रहित आहार ही युक्ताहार है; क्योंकि वही 'अहिंसा का आयतन' है। मधु और मांसयुक्त आहार हिंसा का आयतन होने से युक्त नहीं है। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 10 89
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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