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________________ सात घरों से भिक्षा माँगनी चाहिए।" जैन-ग्रन्थ 'मूलाचार' में सरल (सीधी) पंक्ति से तीन अथवा सात घर से आया हुआ प्रासुक-ओदन ग्राह्य है। इसके विपरीत यत्र-तत्र किन्हीं भी सात घरों से आया हुआ आहार अनाचिन्न (अनाचीर्ण) अर्थात् अग्राह्य है; क्योंकि इससे ईर्यापथशुद्धि नहीं होती है। एकभक्त __ मनु ने कहा है कि संन्यासी एक समय ही भिक्षा के लिए विचरण करे। अधिक प्रमाण में आसक्त न हो; क्योंकि भिक्षा में आसक्त संन्यासी विषयों में भी आसक्त हो जाता है। जैनमुनि के 28 मूलगुणों में एकभक्त (एक ही बार भोजन) कहा गया है। यह 'सामायिक-संयम' का विकल्प होने से श्रमणों का मूलगुण है। इन्द्रियरोधादि . ___मनुस्मति' में कहा है कि इन्द्रियों के निरोध से राग-द्वेष के नाश से तथा प्राणियों की अहिंसा से अमरता प्राप्त होती है। आचार्य शुभचन्द्र ने 'ज्ञानार्णव' में उपुर्यक्त तीनों बातों पर जोर देने के लिए तीनों पर स्वतन्त्र सर्ग लिखे। वे कहते हैं कि “जिसने इन्द्रियों को नहीं जीता, वह कषायरूपी अग्नि का निर्वाण करने में असमर्थ है। इसकारण क्रोधादिक को जीतने के लिये इन्द्रियों के विषय का रोध करना प्रशंसनीय कहा जाता है।"25 अपने अधीन किया हुआ मन भी रागादिक भावों से तत्काल कलंकित किया जाता है। इसकारण मुनिगणों का यह कर्तव्य है कि विषय में वे प्रमादरहित हो सबसे पहिले इन "रागादिक को दूर करने में यत्न करें। "अहिंसा ही जगत् की माता है; क्योंकि समस्त जीवों की रक्षा करती है। अहिंसा ही आनन्द की परिपाटी है। अहिंसा ही उत्तम-गति है। जगत् में जितने उत्तमोत्तम गुण हैं, वे सब इस अहिंसा में ही हैं।" सम्यग्दर्शन सम्यग्दर्शन से सम्पन्न व्यक्ति कर्मों से नहीं बँधता है और सम्यग्दर्शन से हीन व्यक्ति संसार को प्राप्त करता है। जैनाचार्य शुभचन्द्र ने कहा है कि भलेप्रकार प्रयुक्त किये हुये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों की एकता होने से मोक्षरूपी लक्ष्मी उस रत्नत्रययुक्त आत्मा को स्वयं दृढ़ालिंगन देती है।" ज्योतिष तथा मन्त्र-तन्त्रादि का निषेध ___ मनु के अनुसार सन्यासी को भविष्यवाणी करके, शकुनाशकुन बनाकर, ज्योतिष का प्रयोगकर, विद्या, ज्ञान आदि के सिद्धान्तों का उद्घाटन और विवेचन आदि न करके भिक्षा माँगने का प्रयत्न करना चाहिये। जैनग्रन्थ 'मूलाचार' में मुनि के आहारसम्बन्धी-दोषों के 46 भेद कहे गये हैं, इनमें उत्पादन-दोषों के अन्तर्गत विद्या तथा मन्त्र-दोष आता है। जो साधित करने पर सिद्ध होती है, उन्हें 'साधित-सिद्ध-विद्या' 00.88 प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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