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________________ ने संकेत-ग्रहण कर लिया है, उन शब्दों से उन लोगों को उस अर्थ का बोध हो जाता है' यह एक साधारण-नियम है। यदि ऐसा न होता, तो संसार में देश-भेद से सैकड़ों प्रकार की भाषाएँ न बनतीं। एक ही पुस्तकरूप अर्थ का 'ग्रन्थ, किताब, पोथी' आदि अनेक देशीय-शब्दों से व्यवहार होता है और अनादिकाल से उन शब्दों के वाचकव्यवहार में जब कोई बाधा या असंगति नहीं आई, तब केवल संस्कृत-शब्द में ही वाचक-शक्ति मानने का दुराग्रह और उसीके उच्चारण से धर्म मानने की कल्पना तथा स्त्री और शूद्रों को संस्कृत-शब्दों के उच्चारण का निषेध आदि वर्ग-स्वार्थ की भीषण-प्रवृत्ति के ही दुष्परिणाम हैं। धर्म और अधर्म के साधन किसी जाति और वर्ग के लिए जुदे नहीं होते। जो ब्राह्मणं यज्ञ आदि के समय संस्कृत-शब्दों का उच्चारण करते हैं, वे ही व्यवहारकाल में प्राकृत और अपभ्रंश-शब्दों से ही अपना समस्त जीवन-व्यवहार चलाते हैं। बल्कि हिसाब लगाया जाये, तो चौबीस घंटों में संस्कृत-शब्दों का व्यवहार पाँच प्रतिशत से अधिक नहीं होता होगा। व्याकरण के बन्धनों में भाषा को बाँधकर उसे परिष्कृत और संस्कृति बनाने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। और इसतरह वह कुछ विशिष्ट वाग-विलासियों की ज्ञान और विनोद की सामग्री भले ही हो जाये, पर इससे शब्दों की सर्वसाधारण वाचकशक्तिरूप-सम्पत्ति पर एकाधिकार नहीं किया जा सकता। 'संकेत के अनुसार संस्कृत भी अपने क्षेत्र में वाचकशक्ति की अधिकारिणी हो, और शेष-भाषाएँ भी अपने-अपने क्षेत्र में संकेताधीन वाचकशक्ति की समान अधिकारिणी रहें' —यही एक तर्कसंगत और व्यवहारी-मार्ग है। ___ शब्द की साधुता का नियामक है – 'अवितथ अर्थात् सत्य अर्थ का बोधक होना', न कि उसका संस्कृत होना । जिसप्रकार संस्कृत शब्द 'यति' अवितथ अर्थात् सत्य अर्थ का बोधक होने से 'साधु' हो सकता है, तो उसी तरह प्राकृत और अपभ्रंश भाषाएँ. भी सत्यार्थ का प्रतिपादन करने से 'साधु' बन सकती हैं। ___ जैन-परम्परा जन्मगत-जातिभेद और तन्मूलक विशेष-अधिकारों को स्वीकार नहीं करती। इसीलिए वह वस्तुविचार के समय इन वर्गस्वार्थ और पक्षमोह के रंगीन-चश्मों को दृष्टि पर नहीं चढ़ने देती और इसीलिए अन्य-क्षेत्रों की तरह भाषा के क्षेत्र में भी उसने अपनी निर्मल-दृष्टि से अनुभव-मूलक सत्य-पद्धति को ही अपनाया है। __ शब्दोच्चारण के लिए जिह्वा, तालु और कंठ आदि की शक्ति और पूर्णता अपेक्षित होती है और सुनने के लिए श्रोत्र-इन्द्रिय का परिपूर्ण होना। ये दोनों इन्द्रियाँ जिस व्यक्ति के भी होंगी, वह बिना किसी जातिभेद के सभी शब्दों का उच्चारण कर सकता है और सुन सकता है और जिन्हें जिन-जिन शब्दों का संकेत गृहीत है, उन्हें उन-उन शब्दों को सुनकर अर्थबोध भी बराबर होता है। स्त्री और शूद्र संस्कृत न पढ़ें तथा द्विज ही पढ़ें - इसप्रकार के विधि-निषेध केवल वर्गस्वार्थ की भित्ति पर आधारित हैं। वस्तुस्वरूप-विचार में इनका कोई उपयोग नहीं है, बल्कि ये वस्तु-स्वरूप को विकृत ही कर देते हैं। 0024 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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