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________________ विदेह हो गया। हमें ज्ञात ही नहीं कि हम अपने आधार को स्वयं ही ध्वस्त कर दूसरों को सीख दे रहे हैं । अंत में यह हुण्डावसर्पिणीकाल है कि वैशाली कुण्डपुर का अंत अजातशत्रु ने महावीर के जीवनकाल में ही कर दिया था, अत: उस पुण्य - क्षेत्र के नाम की दुहाई देकर जनता को भ्रमित नहीं करना चाहिये । सच्चाई. सच्चे मन से स्वीकारना चाहिये । डॉ. अभय प्रकाश जी :- आपने अपने मामा श्री डॉ. कामता प्रसाद जी के कर्तृत्व को महिमामंडित कर उचित ही किया था। दुर्भाग्य, उसी लेखनी से उनके कर्तृत्व को उसी तरह जमींदोज कर दिया, जैसा अजातशत्रु ने अपने नाना- मौसा का राज्य किया था । घर में आग घर के दिये से ही लगती है— अभिप्राय की भिन्नता से । वे स्वीकारते हैं कि कुण्डलपुर का कोई मौलिक- अस्तित्व नहीं है । उन्हें स्मरण होना चाहिये वासोकुण्ड में दो बीघा जमीन ‘अहल्ल' (बिना जुती शदियों से ) पूज्य मानकर छोड़ी है— पूज्य है, निःशुल्क समाज को समर्पित है। 'नालंदा' के निकट 'बड़ागांव' का मंदिर मार्ग में होने से सभी जन सहजधर्म श्रद्धाभाव से जाते हैं । कैलाश पर्वत पर कौन जाता है, कितने जाते हैं; तो क्या आदिनाथ की जन्मस्थली मानना भूल जावें ? आरोपित - आस्था भी ज्ञान प्रकाश में बदल जाती है । आपने आचार्यप्रवर श्री विद्यासागर जी के संघ से लेकर अन्य सभी संघ इसी पक्ष में हैं। इस सम्बन्ध में उन्हें अपनी असत्य - कल्पना के प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिये । चालूबात लिखकर भ्रम पैदा नहीं करना चाहिये । हमारी जानकारी में आचार्यश्री ने अपना मौन - भंग नहीं किया है, प्रकरण चिंतन की प्रक्रिया में है; यद्यपि उनके गुरू और शिष्यद्वय एवं अन्य मुनिराज 'कुण्डपुर - विदेह' (वैशाली) को जन्मभूमि स्वीकारते हैं। समग्रता में यह महत्त्वपूर्ण नहीं है कि 'कुण्डपुर - विदेह' कौन-सा स्थल स्वीकार किया जाये और कौन नहीं? जिसकी जहाँ श्रद्धा है. उसकी अपनी निजी श्रद्धा है । यह भी महत्त्वपूर्ण नहीं है कि कौन अविकसित क्षेत्र / तीर्थ का विकास कर रहा है । जिनेश्वरीदीक्षा की भावना के प्रतिकूल कार्य इष्ट नहीं है। मूल बात सिर्फ इतनी है कि हम अपनी बौद्धिकता, इष्ट-भावनाओं एवं पद की मर्यादा के प्रति ईमानदार रहें। यदि हमने दिगम्बर-जैन-आगम को आधार बनाया है, तो उसी से सिद्ध करें; भले ही सिद्ध हो या न हो और प्रबल पक्ष स्वीकार करें। यदि परिस्थितिजन्य 'साक्ष्य को सम्मिलित करना है, तो फिर एकांगी-उपदेश क्यों दे और क्यों अपने पक्ष के समर्थन हेतु आगम में परिवर्तन करें? और अपनी आधारहीन - कल्पनाओं को प्रमाण मानें तथा अपर-पक्ष के ठोस तर्क को दृष्टि ओझल करें? तीर्थ-विकास करें, परन्तु अकारण विद्वान् / पत्रकार / जिनेश्वरी दीक्षाधारकों में मतभेद, ईर्ष्या या अहंकार / विद्वेष की भावना न पनपने दें, यही भावना है। प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 2002 DO 43
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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