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________________ कुलक्रमायात-सुविद्यया य: प्राप्तोपसर्ग परिहर्तुमीश: । सोऽयं प्रतिष्ठाविधिषु प्रयोक्ता श्लाघ्योऽन्यथा दोषवती प्रतिष्ठा। 2601 शास्त्रानभिज्ञं कुलवावदूकं लोभानलप्लुष्टमशान्तशीलं । परम्पराशून्यमपार्थसार्थ दूरात्त्यजन्तु प्रणिधाननिष्ठाः। 261 । प्रयोक्तृवाक्यं न हि मन्यमानो लोभादिसंचारकृतापमानः। प्राप्नोत्यनर्थं गुरुवाग्विरुद्धः इहान्यत: श्वभ्रमदभ्रदुःखं । 262। अर्थ :- अनूचान अर्थात् अंगसहित-प्रवचन का ज्ञाता हो, श्रुतश्रद्धानी हो, हस्तक्रिया में दक्ष हो, धर्मोपदेश करने में चतुर हो, सकृद्भोजी हो, श्रेष्ठकुली हो, अक्षरदोषों को पहिचाननेवाला हो, निरालसी हो, जितेन्द्रिय हो, देव-शास्त्र-गुरु को प्रमाण माननेवाला हो, शास्त्रार्थ में निपुण हो, क्षमावान् हो. राजादि से मान्य हो, व्रती हो, निमित्तज्ञानी हो, मन्त्र-विधि का ज्ञाता हो, सहनशील हो; — इन गुणों से सहित आचार्य होना चाहिये। अजानकार, दूषितकुली, अशान्तशील, लोभी व्यक्ति आचार्य नहीं होना चाहिये। आचार्य को यजमान की शक्ति और अभिप्राय को अच्छी तरह से पहिचानकर कार्य करना चाहिये। -('श्रीप्रतिष्ठाविधानसंग्रह', पृष्ठ 59) देश-जाति-कुलाचारैः श्रेष्ठो दक्ष: सुलक्षण: । . त्यांगी वाग्मी शुचि: शुद्धसम्यक्त्व: सद्वतो युवा।। 33 ।। श्रावकाध्ययन-ज्योतिर्वास्तुशास्त्र-पुराणवित्। निश्चय-व्यवहारज्ञ: प्रतिष्ठाविधिवित्प्रभुः ।। 34।। विनीत: सुभगो मंदकषायो विजितेन्द्रियः ।। जिनेज्यादि-क्रियानिष्ठो भूरिसत्त्वार्थबांधवः ।। 35।। दृष्ट-सृष्ट-क्रियो वार्त: संपूर्णांग: परार्थकृत् । वर्णी गृही वा सवृत्तिरशूद्रो याजको धुराट् ।। 36।। -(प्रतिष्ठातिलकः', पृष्ठ 1) अर्थ :- देश-जाति और कुल के आचारों में श्रेष्ठ हो, निपुण हो, सुलक्षणवाला हो, युवा हो, श्रावकाध्ययन-ज्योतिषशास्त्र-वास्तुशास्त्र एवं पुराणशास्त्र का ज्ञाता हो, निश्चय-व्यवहार का ज्ञानकार हो, प्रतिष्ठाविधि का वेत्ता हो, प्रभु (आत्मवशी) हो, विनीत हो, सुन्दर अंगोंवाला हो, मंदकषायवाला हो, जितेन्द्रिय हो, जिनेन्द्रपूजा आदि क्रियाओं में निष्ठावान् हो, प्राणीमात्र का बंधु हो, दृष्ट एवं सृष्ट क्रियावाला हो, 'वार्त' हो, सम्पूर्ण-अंगों से युक्त हो (विकलांग न हो), परोपकारी हो, वर्णी अथवा गृहस्थ हो, सदाचारी हो, शूद्रवृत्ति न हो, तथा प्रभावान् हो —ऐसा व्यक्ति 'याजक' (प्रतिष्ठाचार्य) कहलाता है। विधानाचार्य का लक्षण देश-कालादि-भावज्ञो, निर्मलो बुद्धिमान् वरः। सद्वाण्यादि-गुणोपेतो, याजकोऽत्र प्रशस्यते।।3।। 0072. प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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