________________
में
वीरो' है। धवला में 'कुण्डलपुर' मूल में लिखा बताया है। जबकि धवला, पुस्तक 7, पृष्ठ 121, (सोलापुर से 1990 में प्रकाशित ) एवं गाथा 28 पृष्ठ 122 में 'कुंडपुर' मूल लिखा है। 'कुण्डलपुर' उन्हें कहाँ से प्राप्त हुआ, इसकी सिद्धि वे करें । कुंडपुर को कुण्डलपुर (नालंदा) संदर्भित कर वे स्वयं भ्रमित हुईं और अन्यों को भी भ्रमित करने का निमित्त बनी। पं. शिवचरण जी के आलेख में भी यही (कुण्डलपुर ) शब्द का उपयोग हुआ । स्पष्ट है कि यह सोद्देश्य उत्पन्न किया गया भ्रम है
1
दूसरे, प्रज्ञाश्रमणी जी ने गणनीप्रमुखा श्री ज्ञानमती जी के माध्यम से यह धारणा बनाने का प्रयास किया कि सन् 1974 में आचार्यश्री धर्मसागर जी, देशभूषण जी महाराज एवं पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर आदि के मध्य चर्चा में सभी ने 'कुण्डलपुर' को स्वीकार किया, वैशाली किसी को इष्ट नहीं थी । यह चर्चा कब, कहाँ, कैसे हुई, इसका कोई उल्लेख नहीं है, फिर ऊपर पद दो में स्पष्ट की गयी स्थिति में यह चर्चा संदिग्ध हो जाती है । जहाँ उन्होंने एक हजार पृष्ठ की रचना / ग्रंथ में 'कुण्डपुर' को जन्मस्थली स्वीकार की हो, वहाँ उसे निजी - चर्चा में अस्वीकारना हास्यास्पद जैसा है। हाँ वैशाली, मात्र वैशाली को कभी भी किसी ने जन्मभूमि नहीं माना। मानने का प्रश्न भी नहीं उठता। अतः यह तर्क भी स्थिति में सहयोग नहीं करता ।
तीसरे, प्रज्ञाश्रमणी जी ने बिना आधार दिये 'विदेह - देश' को पूरा 'बिहार - प्रांत' मानने की घोषणा की, जो नितांत भ्रम / अज्ञानपूर्ण है । यह उन्होंने इसलिये किया कि वे 'कुण्डलपुर-नालंदा' को ही 'विदेह' में होना सिद्ध करना चाहतीं हैं । यह सब कार्य वे अपना निजी-कल्पना में मान सकतीं है; किन्तु यथार्थ से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । अपनी इस कल्पना को सप्रमाण सिद्ध करना अपेक्षित है।
चौथे, नाना-नानी का सुन्दर, भावेत्तेजक कल्पना कर वे पाठकों का ध्यान इस यथार्थ से विलग करना चाहतीं हैं कि वैशाली उस समय एक गणतंत्र था, जिसका कुण्डपुर एक भागीदार था। दो भागीदारों के राज्य निकट होने में क्या बाधा है। कल्पित-भ्रम खड़ा कर उन्हें विद्वेषी के निकट कुण्डपुर होना इष्ट लगा । यदि ऐसा था, तो उन्हें तीर्थंकर के महान् पिता के महान् राज्य की सीमा भी सिद्ध करना चाहिये, जो मगध से भिन्न कुछ भी अलग सिद्ध नहीं होती। ऐरावत हाथी तो एशिया महाद्वीप में भी नहीं आ सकता ।
अंत में, प्रज्ञाश्रमणी जी ने गणनी ज्ञानमती जी के जन्मस्थल और कर्मभूमि की भिन्नता निरूपित कर वैशाली में प्राप्त पुरातात्त्विक प्रमाणों को मूल्यहीन सिद्ध करने का प्रयास किया। इस सम्बन्ध में इतना ही निवेदन है कि जन्मभूमि और कर्मभूमि की भिन्नता या पृथक्ता गणनी जी की जैन संस्कृति को नई देन है । जैन - - परम्परा में दीक्षाधारी की कोई स्थायी कर्मभूमि नहीं होती । उनका अनुकरण कर जिनेश्वरीदीक्षाधारी महानुभावों ने भी अपनी-अपनी कर्मभूमि गढ़ने का उपक्रम क्रिया, जो जिन
प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 2002
10 41