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________________ के राष्ट्रपति मार्शल टीटो का मध्यभारत के कुछ स्थल देखने का कार्यक्रम था। विशिष्ट व्यक्तियों के दौरे के कार्यक्रम के साथ उनके दिनभर की समयसारणी भी संलग्न थी। इसमें उनके भोजन में मांसाहार भी सम्मिलित था। गंगवाल जी ने निडर होकर पंडित जी को विनम्र निवेदन करते हुए पत्र लिखा कि मैं राजकीय अतिथि को शुद्धजल व शाकाहारी भोजन ही उपलब्ध करा सकूँगा। मांसाहार उपलब्ध कराने में उस युग में प्रधानमंत्री को नाखुश करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिनमें धर्म के प्रति आस्था होती है, वे राजनीति के लिए अनुपयुक्त होते हैं और राजनीति में जिनकी गति/स्थिति/रुचि होती है उनकी धर्म में अभिरुचि नहीं होती —ऐसा सामान्य सिद्धांत है, पर गंगवाल साहब इसके अपवाद थे। प्रतिदिन दर्शन का नियम उनका आजीवन चलता रहा। राजनीति की काली कोठरी में से भैयाजी उजले ही उजले निकले, यह सचमुच आश्चर्य की बात है। तभी तो उनके निधन पर श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए श्री सुंदरलाल पटवा ने कहा था— '1957 और उसके बाद हम और वे राज्य-विधानसभा में काफी समय तक आमने-सामने बैठे। हम आँखों में अंजन डालकर उनकी कमियाँ खोजते रहे, लेकिन उनके खिलाफ कुछ भी हाथ नहीं लगा। राजनीति में ऐसे बहुत ही कम लोग मिलते हैं, जो काजल की कोठरी में रहकर भी अपने ऊपर कालिख की एक लकीर लगाए बिना साफ-सुथरे बाहर निकल आते हैं।' भगवान् महावीर के 2500वें निर्वाण महोत्सव, (1974) धर्मचक्र-प्रवर्तन. इन्दौर के समवसरण-मंदिर का पंचकल्याणक (1981), भगवान् बाहुबली प्रतिष्ठापना सहस्राब्दि एवं महामस्तकाभिषेक के अवसर पर जनमंगल-महाकलश (1980-81) महावीर ट्रस्ट' का संगठन आदि आयोजनों में उनकी कर्मठता एवं धार्मिकता अभिव्यक्त हुई थी। उनके नि:स्पृही जीवन का अनुमान उनके द्वारा अपनी मृत्यु (4/9/81) से 2 दिन पूर्व (2/9/81) लिखित उनकी वसीयत, जो पत्र रूप में है, से लगाया जा सकता है। वे लिखते हैं—'मेरे जीवन का संध्याकाल है, अत: जीवन का अन्त किसी क्षण, किसी रूप में भी हो सकता है। मेरी जीवन दृष्टि बाल्यकाल से ही सेवा की रही। धन्धे आदि में रुचि स्वल्पतम रही। केवल गृहस्थ का उत्तरदायित्व निभाने के लिए आजीविका उपार्जन करता रहा, जीवन सार्वजनिक सेवा और राजनीति में ही बीता। आजीविका उपार्जन भी सवृत्ति और सद्बुद्धि से किया। लोभ-लालच की भावना मन में नहीं जगी, धनसंग्रह की लालसा नहीं रही। विचार और आचार की पवित्रता का पूरा ध्यान रखा। कभी लोकमार्ग और धर्ममार्ग को छोड़ा नहीं। सादगी से जिया तथा स्वभाव में मितव्यता मूलत: रही। मेरा विश्वास स्वावलंबन और स्वाश्रय में रहा, अत: बचत करके वृद्धावस्था के लिए कुछ संग्रह रखा, जो हुण्डियों में ब्याज पर नियोजित है। मेरे नाम पर कोई मकान और जमीन नहीं है, अन्य भी कुछ नहीं है। अभी-अभी 0036 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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