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________________ उसका समर्थक है । इस विकास क्रम को उस पेड़ से उपमा दी जा सकती है, जो ही अपने फूलों व फलों के विकास से उपयोगी एवं महत्त्वशाली बनता है 1 इतिहास की चेतावनी और चुनौती इस दृष्टि से यदि विचार किया जा सके, तो जैनधर्म के मूलभूत तत्त्वों की व्याख्या इस रूप में अवश्य ही की जानी चाहिए कि वे वर्तमानकालीन राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय- समस्याओं का सर्वसम्मत-हल उपस्थित कर सकें। जो धर्म अपने मौलिक तत्त्वों द्वारा वर्तमान युग की माँग अथवा •आवश्यकता की पूर्ति की सामर्थ्य खो बैठता है, उसका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है। अन्य अनेक धर्मों का अस्तित्व इसीकारण खतरे में पड़ गया और इतिहास में वे नामशेष रह गये । इतिहास की यह एक चेतावनी अथवा चुनौती है । बौद्धधर्म तथा ब्राह्मणधर्म की तरह जैनधर्म पतनोन्मुखी न होकर सदैव उत्क्रान्तिमूलक रहा है और उसका अस्तित्व युग-युगान्तरों की विनाशकारी - परिस्थितियों में भी बना रहा है । इसीकारण इसको इतिहास की इस चेतावनी अथवा चुनौती पर समय रहते ध्यान देना ही चाहिये । स्पष्ट शब्दों में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि जब समाज में धर्म से निराश होकर धर्मनिरपेक्ष-भावना प्रबल हो रही है, तब जैनधर्म के अनुयायियों को यह सिद्ध कर देना चाहिये कि उनका धर्म विकासोन्मुखी होने के कारण सदा ही विकासशील रहा है, हर युग की माँग तथा आवश्यकता की उसने पूर्ति की है और आज भी उसमें 'राष्ट्रधर्म' की आवश्यकता की पूर्ति करने की क्षमता विद्यमान है । समता व क्षमा, अहिंसा और स्याद्वाद् आदि आधारभूत सिद्धान्तों के सम्बन्ध में प्रस्तुत - - लेख में विचार नहीं किया गया है। सामायिक, साम्य - भावना अथवा समाजवाद का अत्यन्त उत्कृष्ट एवं शाश्वत आध्यात्मिकरूप है। जैनधर्म का साम्यभाव या समाजवाद केवल मानव-समाज तक सीमित नहीं है, प्राणिमात्र उसकी परिधि में समा जाते हैं । ब्राह्मणधर्म “नान्यः पन्था विद्यते अयनाय” अथवा “मामैकम् शरणं व्रज" के रूप में एकान्तवादी है, जबकि जैनधर्म उसके सर्वथा विपरीत है । वह विपक्षी के लिए भी अपने ही समान गुंजाइश रखता है। यदि दूसरे के लिए गुंजाइश रखकर जीवन - व्यवहार किया जाये, तो संघर्ष की संभावना नहीं रहती। एक नियत - दिवस पर ज्ञात-अज्ञात भूलों अथवा अवज्ञाओं के लिए हार्दिक क्षमा-याचना, विश्वबन्धुत्व तथा विश्वशांति की नींव बन सकती है। इसप्रकार व्यावहारिकरूप में जैनधर्म की क्षमता असीम है। दुर्भाग्य यह है कि जैनधर्म के अभिमानी - लोगों में ही विश्वास, श्रद्धा तथा निष्ठा की कमी उसकी क्षमता के लिए घातक सिद्ध हो रही है। भारतीय - जीवन - महानद के दोनों किनारों को पुष्ट करने के बजाय हम उनको कमजोर करने में लगे हैं। इस वस्तुस्थिति को जितनी जल्दी समझा जा सकेगा, उतना ही हमारा कल्याण सुनिश्चित और सुरक्षित है। - (साभार उद्धृत — 'बाबू छोटेलाल जैन स्मृति - ग्रन्थ', कलकत्ता, 1967 ई.) OO 20 प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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