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इस कातन्त्र-व्याकरण में नहीं बताई गई है, उनकी सिद्धि शिष्टजनों के व्यवहार से तथा अन्य व्याकरणों से समझ लेनी चाहिए। जैसे—वरणा:' -यह वृक्ष की संज्ञा होने के साथ-साथ नगर का भी बोधक है।
कच्चायन– “अनुपदिहानं वुत्तयोगतो” — (1/5/10) । स्वरसन्धि तथा व्यञ्जनसन्धिसम्बन्धी जो विधान उपसर्ग और निपातों में यहाँ नहीं किया गया है, उसकी योजना यथोचितरूप में (शिष्टजनव्यवहार तथा अन्य व्याकरणों के अनुसार) कर लेनी चाहिए। जैसे- उप+अयनं उपायनं ।
समीक्षा- किसी भी प्राचीन प्रतिष्ठितभाषा में शब्दों की संख्या निश्चित नहीं की जा सकती। तदनुसार संस्कृत-पालि भाषाओं में शब्दों के अनन्त होने के कारण और उन सभी अनन्त-शब्दों का साधुत्वबोध किसी एक व्याकरण द्वारा सम्भव न होने के कारण प्राय: सभी शाब्दिक आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में इसप्रकार के निर्देश किए हैं। उदाहरण के लिए "पृषोदरादीनि यथोपदिष्टम्" (अ. 6/3/101) तथा "सिद्धिः स्याद्वादात्, लोकात्” (हैम. 1/1/2-3) आदि सूत्रवचनों को प्रस्तुत किया जा सकता है।
: 13. दीर्घसन्धि कातन्त्र– “समान: सवर्णे दीर्धीभवति परश्च लोपम्" - (1/2/1)। सवर्णसंज्ञक वर्ण के परवर्ती होने पर समानसंज्ञक वर्ण को दीर्घ-आदेश तथा परवर्ती सवर्णसंज्ञक-वर्ण का लोप होता है। जैसे— 'दण्डाग्रम्, मधूदकम्' इत्यादि।
कच्चायन- "दीघं, पुब्बो च" – (1/2/4-5)। पूर्व-स्वर का लोप हो जाने पर परवर्ती-स्वर को तथा कहीं-कहीं पर परवर्ती-स्वर का लोप हो जाने पर पूर्ववर्ती-स्वर को दीर्घ होता है। जैसे—'सद्वीध, किंसूध' इत्यादि। ... .
समीक्षा- दोनों व्याकरणों में दीर्घसन्धि की प्रक्रिया बिल्कुल भिन्न है। कच्चायन ने केवल कातन्त्रीय सूत्र “लुवर्णे अल्” (1/2/5) का अनुसरण अवश्य किया है— ऐसा कहा जा सकता है।
14. गुणसन्धि कातला— “अवर्ग इवणे ए, उवर्णे ओ" – (1/2/2-3)। इवर्ण उवर्ण के परवर्ती होने पर पूर्ववर्ती अवर्ण के स्थान में 'ए-ओ' आदेश तथा इवर्ण-उवर्ण का लोप होता है।
जैसे- 'सेयम्, गंगोदकम्' इत्यादि। ___ कच्चायन- “क्व चासवण्णं लुत्ते” – (1/2/3) । पूर्व-स्वर का लोप हो जाने पर परवर्ती-स्वर कहीं-कहीं असवर्णता को प्राप्त होता है। जैसे— 'बन्धुस्सेव' इत्यादि।
समीक्षा— यहाँ दोनों व्याकरणों की प्रक्रिया में अन्तर स्पष्टतया परिलक्षित होता है, क्योंकि कातन्त्रकार अवर्ण के ही स्थान में 'ए-ओ' आदेश करते हैं, जबकि कच्चायन व्याकरण में पूर्ववर्ती अवर्ण का लोप करके रूपसिद्धि की जाती है।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
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