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अर्थ :(सूर्य) हैं, गुरु ही चन्द्रमा है, गुरु दीपक हैं और गुरु ही देव हैं।
गुरु को प्रज्ञाचक्षु प्रदान करनेमें निमित्त बताकर उसे 'माता-पिता से भी श्रेष्ठतर' कहा गया है— “गर्भाधानाक्रियामात्रन्यूनौ हि पितरौ गुरु: । "
जो परम्परा से आत्मा और पर का भेद दशति हैं – ऐसे गुरु दिनकर
- (क्षत्रचूड़ामणि, द्वितीय लम्ब, श्लोक, 59 ) अर्थ :- नौ महीने नौ दिन माँ ने गर्भ में रखा, इसीलिए ही माता-पिता के उपकार हैं, अन्यथा जीवनभर सारे उपकार गुरु के ही हैं।
“गुरुर्विधाता गुरुरेव दाता, गुरु: स्वबन्धुर्गुरुरत्नसिन्धुः । गुरुर्विनेता गुरुरेव तातो, गुरुर्विमोक्षो हतकर्मपक्षः । । "
- ( चारुकीर्ति भट्टारक, गीतवीतराग, 9/5) अर्थ गुरु ही विधाता है, गुरु ही दाता है, गुरु ही स्वबन्धु है, गुरु ही रत्नों ( रत्नत्रय) का सिन्धु है, गुरु ही विनेता (मोक्षमार्गस्य नेतारं ) है, गुरु ही पिता है और क्या कहें गुरुदेव ही कर्मों का नाश करने में निमित्त हैं, इसलिए वे मोक्षस्वरूप हैं ।
अत: ऐसे परम-उपकारी गुरु का जो सम्मान नहीं करते, उनके प्रति महाकवि शूद्रक लिखते हैं
“ये सत्यमेव न गुरून् प्रतिमानयन्ति ।
तेषां कथं नु हृदयं न भिनत्ति लज्जा । । " – (मुद्राराक्षस, 3/33 )
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अर्थ :यह सच है कि जो लोग गुरुजनों का सम्मान नहीं करते, उनका हृदय लज्जाविदीर्ण क्यों नहीं हो जाता ?
गुरु की गम्भीरता का यशोगान इस पद्य में अत्यंत प्रभावी रीति से किया गया है— “देवीं वाचमुपासते हि बहवः सारं तु सारस्वतं । जानीते नितरामसौ गुरुकुलक्लिष्टो मुरारिः कविः । । अब्धिर्लंघित एव वानरभटैः किन्त्वस्य गम्भीरतां । आपाताल - निमग्न- पीवरतनुर्जानाति मन्दराचल: ।।”
- ( आचार्य हेमचन्द्र सूरि )
अर्थ :- पल्लवग्राही पुस्तकी विद्या से अब तक अनेकों ने वाग्देवी की उपासना की है। सारस्वत-सार को मात्र गुरुकुल - वास में निवास करके आक्लिष्ट हुआ मुरारी कवि ही जानता है। कपिभटों ने समुद्र का लंघन तो किया, लेकिन क्या उसकी गहराई को जाना? नहीं जाना। उसकी गहराई को पाताल तक डूबा हुआ महान् मन्दराचल ही जानता है।
आचार्य योगीन्द्रदेव ने ‘अमृताशीति' ग्रंथ में समस्त तत्त्वज्ञान को 'गुरु-परम्परा से प्राप्त' कहकर गुरु की महिमा बताई है—
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प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 2002