SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उनको महाव्रतों का नाम दिया गया। महाव्रतों का पालन करनेवाले यति मुनि अथवा साधु के जीवन को मानव-जीवन की पूर्णता का यहाँ तक प्रतीक माना गया कि उसको ‘भगवान्' मानकर पूजा जाने लगा। यह पूजा वस्तुत: आत्मसाधना की पूर्णता की ही पूजा है। मानवजीवन के व्यवहार में इन तत्त्वों का समावेश जिस प्रक्रिया से हुआ, उसी से उस धर्म का परिष्कार अथवा निखार हुआ, जिसको जैनधर्म' कहा जाता है। इसप्रकार जैनधर्म को ऐसा धर्म मानना चाहिए, जो सदा ही परिवर्धनशील होने के कारण विकासोन्मुख रहा है। . सिद्धान्त और जीवन-व्यवहार इसीलिये हमारी मान्यता यह है कि जैनधर्म अपने विशुद्धरूप में संस्कृतिप्रधान धर्म है। उसको उन धर्मों की तरह सिद्धान्त-प्रधान नहीं कहना चाहिए, जो लोक-व्यवहार से उदासीन रहकर केवल सिद्धान्तों की दार्शनिक-मीमांसा की भूल-भुलैया में भटकते रहते हैं और साधारणबुद्धि-मानव के लिए गूढ-पहेली बनकर रह जाते हैं। इसीकारण जैनधर्म मुख्यतया न तो शास्त्रपरक है, न व्यक्तिपरक है, न चमत्कारपरक है और न कालपरक है। ____ अन्य धर्मों की स्थिति ऐसी नहीं है। वे अधिकतर शास्त्रपरक हैं। उदाहरण के लिए वैदिक-धर्म के मूल-आधार वेद' हैं। इसीप्रकार ईसाई-धर्म का मूल-आधार 'बाइबिल', इस्लाम का कुरानशरीफ' और पारसी-धर्म का 'जिन्दावेस्ता' है। जैनधर्म किसी एक शास्त्र अथवा आगम तक सीमित नहीं है। व्यक्तिपरक से अभिप्राय यह है कि अन्य अधिकतर धर्म व्यक्तिविशेष की वाणी से आदेश या उपदेश के रूप में प्रकट हुए हैं। उदाहरण के लिए बौद्ध-धर्म का प्रादुर्भाव भगवान् बुद्ध से, ईसाई-धर्म का ईसा मसीह से, इस्लाम का हजरत मुहम्मद साहब से और पारसी-धर्म का 'जरथुस्त' से हुआ। जैनधर्म की स्थिति यह नहीं है। वह किसी एक ही व्यक्तिविशेष की वाणी से प्रकट हुआ आदेश या उपदेश नहीं है। चमत्कारपरक से तात्पर्य यह है कि अनेक धर्म अपने अनुयायियों को चमत्कारों के चक्र में उलझाये रखते हैं। उनमें सिद्ध-पुरुषों की चमत्कारपूर्ण मोहमाया का जंजाल कुछ ऐसा फैला हुआ है कि साधारणबुद्धि-मानव उसमें उलझ जाता है और जादू-टोने तथा तंत्र-मंत्र आदि में ही धर्म की इतिश्री मान बैठता है। जैनधर्म में ऐसे जंजाल का कोई स्थान नहीं है। वह एकमात्र लोक-व्यवहार पर निर्भर है। वैदिक-धर्म की परिणति जब ब्राह्मण-धर्म के रूप में हुई, तब वह उस कर्मकाण्ड पर निर्भर रह गया, जिसका रूप अन्त में चमत्कारपरक ही बन गया। पुत्रैषणा, वित्तैषणा तथा लोकैषणा आदि सब की पूर्ति के लिए यज्ञपरक-कर्मकाण्ड का सहारा लिया जाने लगा। ब्राह्मणों के विविध प्रकार के यज्ञानुष्ठानों में उन दैवी-शक्तियों की कल्पना की गई, जिसके कारण उनको मानव की समस्त आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन मान लिया गया। इसी कारण 'गीता' में श्रीकृष्ण ने भोगैश्वर्यप्रधान-कर्मकाण्ड का भयानकरूप में निषेध किया और उन्होंने वेदों को उस कर्मकाण्ड का मूल मानकर उनका प्रतिवाद करने में तनिक-भी संकोच नहीं किया। 0016 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy