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________________ 8. श्रमणाचार एवं पर्यावरण : .. ___जैन-मुनि की जीवनभर के लिये एक स्वीकृत चर्या है, जो पर्यावरण-शुद्धिपरक होती है। साधु के अट्ठाईस मूलगुणों में पाँच महाव्रतों, पाँच समिति, पाँच इंद्रियों के विषयों का निरोध, छह-छह आवश्यक और सात शेष गुण होते हैं। समिति के पालनार्थ वह मौनव्रत (बोलने का संयम) रखता है, जो ध्वनि-प्रदूषण के विसर्सन के लिये है। मल-मूत्र का क्षेपण, निर्जन्तु व एकान्तस्थान में करता है, जो वायु-प्रदूषण के बचाव के लिये है। __ मुनि का अपरिग्रह-महाव्रत प्रकृति से अतिदोहन की प्रवृत्ति पर अंकुश रखने के प्रतीकरूप है, शरीर के स्नानादि-संस्कार नहीं करके जल अपव्यय नहीं होने देता है। दिन में एक बार खड़े होकर शुद्ध सात्त्विक व अयाचित आहार ग्रहण करके मनुष्य की बहुगुणित-अभिलाषा को विराम देने का भाव निहित है; क्योंकि मनुष्य की अनंत इच्छायें ही प्राकृतिक संकटों की जननी हुआ करती हैं। 9. श्रावकचार और पर्यावरण : श्रावक बारह प्रकार के आचार का पालन करता है। 1. पाँच अणुव्रत-अहिंसाणुव्रत, अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रह परिमाणुव्रत। ये पाँचों अणुव्रत मानव के भीतरी पर्यावरण को शुद्ध करके मन को पवित्र बनाते हैं और इससे. अंतर्जगत् का प्रदूषण दूर बनता है। 2. तीन गुणव्रत हैं— दिग्व्रत/देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत। अनर्थदण्ड के पाँच भेद हैं—अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसादान और अशुभश्रुति। इन गुणव्रतों का अनुशीलन करने से बाह्य-पर्यावरण प्रदूषणरहित बनता है; क्योंकि 'अनर्थदण्ड-व्रत' के अंदर वह ऐसे व्यापार करने की सलाह नहीं देता; जिससे युद्ध की सम्भावना हो या प्राणियों को कष्ट पहुँचे। अनावश्यक जंगल कटवाना, जमीन खुदवाना, जल प्रदूषित करना- ये प्रमादचरित के अन्तर्गत आता है। विषैली गैस का प्रसार करना या हिंसा के उपकरण देना हिंसादान है। साम्प्रदायिक तनाव, जातीय दंगे आदि को बढ़ानेवाली अशुभ-बातों को सुनना/सुनाना अशुभश्रुति है। इन सभी का श्रावक त्यागी होता है। 3. चार शिक्षाव्रत- सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग-परिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग, जीवन को संयमित रखते हैं; जिससे पर्यावरण भी संयमित एवं मर्यादित बना रहता है। 10. उपसंहार : पर्यावरण-वैज्ञानिक पहलू से जुड़ा है। अस्तु, जैनधर्म की उपर्युक्त समस्त घटनाएँ सीधी या परोक्ष रूप से पर्यावरण से जुड़ी हैं। अत: जैनधर्म का अनुशीलक, पर्यावरण-सन्तुलन का सम्पोषक/समर्थक होता है। विश्व को प्राकृतिक प्रकोपों से छुटकारा दिलाने के लिये विश्वमान्य-सिद्धान्त-अहिंसा व शाकाहार ही है। 1096 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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