________________
नियोजन (समर्पण) करना ही 'विश्वधर्म' है —ऐसा जानकर श्रेष्ठ-शान्ति के निमित्त इस विधि से (प्राणिमात्र के हित की भावना से धन आदि का नियोजन करने की विधि से) धर्माचरण करना चाहिए।
जैनाचार्यों ने 'धर्म' के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए लिखा है“धम्मो मंगलमुक्किठें, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो।।" – (जयधवल 1-71, पृ. 82) अर्थात् धर्म का स्वरूप प्राणिमात्र के लिए मंगलमय (मं' अर्थात् पापों को गलाने-दूर करनेवाला अथवा 'मंग' अथवा सच्चे सुख को लानेवाला) है और उत्कृष्ट (पुरुषार्थपूर्वक श्रेष्ठता/अभ्युदय की ओर ले जानेवाला) है। वह धर्म, अहिंसा, संयम और तपस्वरूप है। जिस भव्यात्मा के मन में ऐसा धर्म सदा निवास करता है, उसे देवता भी प्रणाम करते हैं। ____ 'धर्म' के स्वरूप का प्रतिपादन यदि पूर्वाग्रह से या अज्ञानपूर्वक होगा, तो निश्चितरूप से वह परिष्कृत एवं विश्वहितकारी नहीं हो सकेगा। इसीलिए धर्म-प्ररूपकों को पूर्वाग्रहों के उत्पादक राग-द्वेष से रहित (वीतरागी) एवं अज्ञानभावशून्य (सर्वज्ञ) होना अनिवार्य माना गया है। ऐसे महापुरुष जब भी किसी निश्छलहृदय जिज्ञासु को 'धर्म' का ज्ञान देंगे, तो निश्चय ही वह उसे आत्मसात् करके न केवल अपना जीवन मंगलमय बना लेगा; अपितु उसकी सुगंध से सम्पूर्ण-परिवेश को भी नंदनकानन बना देगा।
इस विधि से 'धर्म' को आत्मसात् करना ही प्रबुद्धता है, इसीलिए ज्ञानियों ने कहा है- “बुद्धेः फलमात्महितप्रवृत्ति:" अर्थात् यदि हमें बुद्धि (क्षयोपशम) के द्वारा धर्म का ज्ञान हुआ है, तो वह तभी सफल है, जब उसके द्वारा आत्महितकारी आचरण में व्यक्ति प्रवृत्त हो। जो अपने हित और अहित का विवेक ही नहीं कर सके, उस बुद्धि का क्या लाभ है? बुद्धि या ज्ञान सार्थक तभी है, तब वह अपने हित-अहित का विवेक कर हितकारी मार्ग को अपना में एवं अहितकारी विषयों का परित्याग कर दें। यही ज्ञान की सार्थकता या प्रामाणिकता है"हिताहित-प्राप्ति-परिहारसमर्थं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्”—-(परीक्षामुखसूत्र, 1/2) इस तत्त्वज्ञान से जो रहित हैं, वे एकमात्र दु:ख ही भोगते हैं; क्योंकि.
"तत्त्वज्ञान-विहीनानां दुःखमेव हि शाश्वतम्”– (क्षत्रचूड़ामणि, 6/2) धर्म को ऊपर से ओढ़ने की आवश्यकता भी नहीं है; जो ओढ़ा जाएगा, वह कृत्रिम होगा, अस्वाभाविक होगा।इसीलिए किसी वेष या लिंग में धर्म नहीं है और न ही वेषधारण करने से कोई धर्मात्मा बन सकता है। कहा भी है
"न लिंगं मोक्षकारणं ।" – (समयसार कलश, 9/238) "न लिंग धर्मकारणम् ।" – (मनुस्मृति, 6/66) "न वेषधारणं सिद्धेः कारणम् ।” – (हठयोग, 2/66)
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
007