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________________ अनेकत्र प्राप्त होते हैं। जैसे भिल्लराज एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसे ही साक्षात् गुरु मानकर धनुर्वेद-विद्या-साधन करता था, उसे इस मृत्तिकामय गुरुप्रसाद से विद्याएँ सिद्ध हो गई थीं— "गुरुप्रदिष्टं नियम, सर्वकार्याणि साधयेत् । यथा च मृत्तिकाद्रोण: विद्यादानपरो भवेत् ।।" (व्रततिथिनिर्णय) अर्थ :- गुरु के द्वारा दिया गया नियम सभी कार्यों की सिद्धि कराता है। जैसेकि मिट्टी के बने हुए द्रोणाचार्य भी (एकलव्य को) विद्या-दान में समर्थ हुए थे। विशेषत: आत्मा का गुरु आत्मा ही अध्यात्मग्रन्थों में प्रतिपादित किया गया है— "स्वयं हितप्रयोक्तृत्वात्, आत्मैव गुरुरात्मनः।" – (इष्टोपदेश, 34)। अर्थ :- निश्चयनय से आत्मा ही आत्मा का गुरु है, क्योंकि वह स्वयं ही स्वयं का हित कर सकता है। क्योंकि _ 'यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किम् ।' अर्थात् जिसे स्वयं प्रबुद्धपना नहीं हो, शास्त्र या शिक्षक के द्वारा उसे ज्ञान नहीं दिया जा सकता। “आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषत: । यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसावनुविन्दते ।।"- (भागवत, 11/7/20) अर्थ :- इस संसार में प्राणियों का गुरु उनका अपना आत्मा ही है, विशेषरूप से पुरुष (मनुष्य) का। क्योंकि वह प्रत्यक्ष तथा अनुमान द्वारा अपने श्रेय को पहचान लेता है, प्राप्त कर लेता है। वास्तव में ऐसे आत्मगुरु तीर्थकरदेव होते हैं, इसीलिये उन्हें 'जगद्गुरु' कहा गया “जगद्गुरु: जगतां जगति जगद्गुरुः।" -(जिनसहस्रनाम की पं. आशाधरसूरिकृत टीका, 3/44, पृ. 163) अर्थ :- जगत् में रहनेवाले प्राणी-वर्ग के गुरु महान् धर्मोपदेशक को 'जगद्गुरु' कहते हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि शिष्य कहे कि ये मेरे गुरु हैं', यह शोभनीय है; किंतु यह मेरा शिष्य है', —ऐसा कहना 'अधम गुरु' का लक्षण है। 'शेडवाल' में आचार्य शांतिसागर जी को किसी क्षुल्लक जी ने 'जगद्गुरु' एवं 'योगीन्द्रतिलक' विशेषण प्रयोग किये, तो आचार्यश्री ने तुरन्त टोक दिया कि ये विशेषण तीर्थंकर परमात्मा के हैं, हम जैसे सामान्य यतियों के लिए नहीं। हमारा तो तीन कम नौ करोड़ मुनियों के अंत में भी नम्बर लग जाये, तो भी मैं अपना सौभाग्य समझूगा। ___ आज की विशेषणप्रिय-परम्परा के लोग क्या इस घटना की गंभीरता को समझ पायेंगे? tho 00 14 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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