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________________ बनने पर निर्भर करता है। यदि हमने अपने पुरुषार्थ को सांसारिक अचेतन पदार्थों के संग्रह और प्रदर्शन में लगाया, तो हम आत्मघाती हो जाएँगे और यदि हमने अपना पुरुषार्थ पृथ्वी-जल-तेज-वायू-वनस्पति एवं त्रस-जीवों के चैतन्य संरक्षण में लगाया, तो हम आत्मवान् बन सकेंगे। चैतन्य के महत्त्व का प्रतिपादक दर्शन-शास्त्र हमें अन्तर्मुखी बनाता है और जड़-पदार्थों का प्रदर्शन हमें बहिर्मुखी बनाता है। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति हमें अन्तर्मुखी बनाती है। संयम से निवृत्ति और असंयम में प्रवृत्ति हमें बहिर्मुखी बनाती है। सांसारिक-वस्तुओं के संग्रह से उत्थान संभव नहीं है। सांसारिक-वस्तुओं के उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यात्मक स्वरूप को समझकर वस्तुओं के विसर्जनपूर्वक-त्याग से उत्थान संभव है। विजेता बनने का अर्थ पुद्गल का प्रदर्शन या बहिर्दृष्टि नहीं है, अपितु विजेता बनने का अर्थ है –आत्मदृष्टि या अन्तर्दृष्टिवाला होना। आज मानव प्रतिकूल परिस्थितियों को बदलने के लिये अथक-पुरुषार्थ करता है और आडम्बरपूर्ण प्रदर्शन कर अपने अहं की तुष्टि करता है; किन्तु आज आवश्यकता है कि मानव मन:स्थिति को बदले, बहिर्दृष्टि से अन्तर्दृष्टि कर ले। नित्यप्रति बाह्य-सुख साधनों की वृद्धि से उत्साहित मानव बाह्य-सुख की प्राप्ति-हेतु प्रयासरत रहता है। बाह्य-सुख दुःखमिश्रित होते हैं; अत: पदार्थों की प्राप्ति और संग्रह से मानव सुख का अनवरत अनुभव करने में सफल नहीं होता, पुनः प्रयास करता है, पुनः असफल होता है और यह क्रम उसकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं होने में प्रतिफलित होते हैं। इसीलिये भगवान् महावीर ने कहा- “इच्छा हु आगास समा अणंतिया।" आज आवश्यकता है कि मानव आवश्यकता और इच्छा के अन्तर को समझें और बाह्य साधन-सामग्री, यहाँ तक कि शरीर को भी चैतन्य-आत्मा के अनुभव में सहायक बने. ऐसी अन्तर्मुखी जीवनचर्या द्वारा स्वयं को सुखी बनावें । बाह्य- पदार्थों, साधन-सुविधाओं का महत्त्व मात्र उतना ही है, जितना वे अन्तर्मुखी-वृत्ति बनने में सहायक हों। ____ बाह्य-पदार्थ में सुख नहीं है, इनमें परिणाम-ताप-संस्कार दु:ख अविनाभावी हैं; अत: ये दुःखरूप ही हैं। सुख अनुभूति का विषय है, जो रागरहित होने पर अपनी आत्मा के दर्शन से प्रस्फुटित होता है।' ___ हमारा उपयोग तभी सही होगा, जब हमारी आत्मा का परिणाम चैतन्यानुविधायी होगा। चैतन्य के साथ एकतानता होना ही उपयोग है। यह चैतन्यमात्र मैं हूँ — ऐसी अस्तित्वैक्य की अनुभूति उपयोग है। __ आधुनिक भौतिक-युग में हमारा उपयोग (आत्मा का परिणाम) जड़पदार्थान विधायी हो रहा है। जड़पदार्थ- घर, सम्पत्ति, साधन, शरीर आदि में अहं प्रतीति करना कि यह मेरा घर, मेरी सम्पत्ति, मेरे साधन, मेरा शरीर आदि हैं', यह हम जड़-पदार्थों के साथ एक अस्तित्व या एकतानता का अनुभव करने लगे हैं; इसलिये जड़-पदार्थों में अहं-प्रतीति प्राकृतविद्या + अक्तूबर-दिसम्बर '2002 0063
SR No.521369
Book TitlePrakrit Vidya 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain, Sudip Jain
PublisherKundkund Bharti Trust
Publication Year2002
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Prakrit Vidya, & India
File Size14 MB
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