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4.वनों के सफाया होने से, जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। सन् 1600 से अब तक 120 जातियाँ स्तनधारियों की तथा 225 प्रजातियाँ पक्षियों की विलुप्त हो चुकी हैं, और इस सदी के अंत तक 650 वन्य प्राणियों की प्रजातियाँ विलुप्त होने की कगार पर हैं ।
वन-विनाश के कारण न केवल वर्षा में कमी आई है, अपितु बाढ़, सूखा, भू-स्खलन, भू-रक्षण, मरुस्थलीकरण एवं अन्य पारिस्थितिक- विंक्षोभों में । निरन्तर वृद्धि हो रही है। 5. पृथ्वी - तल से लगभग 100 कि.मी. ऊँचाई पर 'ओजोन गैस' की एक पारदर्शी रक्षा-परत है, जो पराबैंगनी और ब्रह्मांड - किरणों जैसी घातक सौर किरणों को पृथ्वी पहुँचाने से रोकती हैं।
कल-कारखानों, वाहनों, विमानों आदि के धुएँ से यह ओजोन परत नष्ट होती है । विश्व में करीब 750 हजार टन ऐसी विषैली गैसें प्रतिवर्ष वातावरण में छोड़ी जातीं हैं; जिससे ओजोन पर घातक - असर होता है । उत्तरी ध्रुव 'अंटार्कटिका' के ऊपर एक ओजोन छिद्र नजर आने लगा है, जिसे वैज्ञानिकों ने देखा है ।
6. आणुविक-परीक्षणों से घातक रेडियोधर्मी - प्रदूषण बढ़ रहा है, जिससे अंतरिक्ष भी प्रदूषण से रहित नहीं रह पा रहा है।
विगत 50 वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण की समस्या जितनी विकट हुई है, उतनी पिछले 400 वर्षों में भी नहीं। इसका कारण है कि मनुष्य ने प्रकृति का अतिशय - दोहन करना शुरू कर दिया है। हाल में आये भयंकर - भूकंप का एक कारण वैज्ञानिकों ने भूमि के नीचे जल-स्तर के गिर जाने से, भूमि के भारी- शून्य पैदा हो जाने की संभावना से ऐसी संहारक-दुर्घटना होना बताया गया है।
2. जैन तीर्थंकरों के जन्म एवं तप कल्याणक तथा पर्यावरण :
जैनधर्म प्रकृति के साथ तादात्म्य की एक अनोखी प्रस्तुति है। तीर्थकरों के जन्मकल्याणक का संबंध क्षीरसागर के जल और सुमेरु पर्वत के हरे भरे जंगल में स्थित पाण्डुकशिला पर होने वाले अभिषेक से प्रारंभ होता है । तप- कल्याण में भावी तीर्थकर - तपश्चर्या हेतु वन की ओर प्रयाण करते हैं और वे शाल्मली, जामुन, बरगद, अशोक आदि वृक्षों के नीचे ध्यान में लीन होते हैं। इसके पीछे बड़ा रहस्य छिपा है। वृक्ष-प्राणवायु (ऑक्सीजन) का जनक होता है। एक वृक्ष अपनी 50 वर्ष की औसत आयु में लगभग 15 लाख 70 हजार मूल्य की प्राणवायु देकर 'वायु- शुद्धिकरण और आर्द्रता - नियंत्रण करता है । ध्यानावस्था में श्वासोच्छ्वास की गति अत्यंत मंद होने पर भी योगी-जन, किसी वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ होकर आवश्यक - प्राणवायु प्राप्त करते हैं । शुक्लध्यान के फलस्वरूप अरहंत-अवस्था में तीर्थंकर को अष्ट-प्रतिहार्यों की प्राप्ति होती है, जिनका सम्बन्ध प्रकृति एवं पर्यावरण से है, जैसे— पुष्पवृष्टि जो पर्यावरण को सुवासित करता है तथा अशोक
प्राकृतविद्या�अक्तूबर-दिसम्बर 2002
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