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पर्यावरण-संरक्षण और जैनधर्म
-पं. निहालचन्द जैन
पर्यावरण-संरक्षण आज की एक विश्वव्यापी ज्वलन्त-समस्या है। हमारे देश के 42वें संविधान-संशोधन द्वारा प्रत्येक नागरिक का यह मूल-कर्त्तव्य हो गया है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण-जिसके अंतर्गत वन, झील और वन्य जीव हैं, की रक्षा करें और उसका संवर्धन करें, प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव रखें तथा अवैध-शिकार करने पर कड़ी दंड-व्यवस्था है। उक्त संविधान संशोधन में जैनधर्म की मूल-भावना को बड़ा संबल मिला है।
पर्यावरण-संबंधी आचार-संहिता, सभी जीवों के प्रति आदरभाव तथा प्रकृति के सौन्दर्य की सुरक्षा की भावना बनाये रखने को बनी है। पर्यावरण के अन्तर्गत वह सब कुछ आ जाता है, जो हमारे आसपास मौजूद है; जैसे- पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, पेड़पौधे, पशु-पक्षी एवं बादर (स्थूल) जीव जंतु तथा भू-गर्भ के खनिज। - विश्व के प्राय: सभी धर्म-जीवों, पशुओं और पौधों के संरक्षण के बारे में उपदेश देते हैं। हिन्दू धर्म में, विविध प्राकृतिक संसाधनों जैसे पेड़ों में पीपल, बरगद, आम, इमली, नदियों में गंगा-जमुना, पशुओं में गाय-बैल, यहाँ तक की सूर्य, चन्द्रमा आदि के पूजन के लिये प्रावधान है। इस्लाम-धर्म भोजन के लिये पशुओं को मारने का समर्थन नहीं करता है। ईसाइयों की धार्मिक-पुस्तक (मैथ्यू 7/12) में पृथ्वी को क्षति पहुँचाना या वन-साम्राज्य का निराधार-विनाश करना (पुस्तक-सिनेसिस 1/28) परमात्मा का अपमान' कहा है। भारतीय-संस्कृति प्रमुखत: जैन-संस्कृति का पर्यावरण-संरक्षण में एक महत्त्वपूर्ण-योगदान रहा है। जिसके प्रमुख-बिन्दुओं पर प्रस्तुत-लेख में विचार किया जा रहा है। 1. असंतलित-पर्यावरण एवं मानव :
1. पर्यावरण-प्रदूषण के बारे में 1980 में अमरीकी राष्ट्रपति विश्व-2000' के प्रतिवेदन में कहा था कि- "यदि पर्यावरण-प्रदूषण नियंत्रित न किया गया, तो 2030 तक तेजाबी वर्षा, भूखमरी और महामारी का तांडव-नृत्य होगा।"
2. औद्योगिक एवं नगरीकरण अपने कूरा-करकट से नदियों के जल को प्रदूषित कर रहा है, जिससे जलीय जीव-जन्तुओं के साथ-साथ मानव-जीवन खतरे में है।
3. उर्वरक एवं कीटनाशकों से भूमि-प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
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