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संकल्पी-हिंसा का पूर्णत्यागी होता है। त्रस जीवों की हिंसा का पूर्णत्यागी होकर वह एकेन्द्रिय स्थावर-जीवों जैसे—पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति की भी संकल्पपूर्वक विराधना नहीं करता है। इसीतरह पर्यावरण को संरक्षित करने में श्रावक की एक अहम्भूमिका होती है। 7. शाकाहार और पर्यावरण-संतुलन : ____ शाकाहार और पर्यावरण का चोली-दामन का संबंध है। आचार्य मुनिश्री विद्यानन्द जी मुनिराज ने कहा है कि "क्रूरताओं की शक्ति का बढ़ना, इस शताब्दी का सबसे बड़ा अभिशाप है। इससे समग्र पर्यावरण प्रदूषित हुआ है और लोक-मन अस्वच्छ हुआ है। युद्ध, रक्तपात, आतंकवाद, लूट-खसोट आदि इस भीषण प्रस्थान-बिन्दु पर जा रहे मनुष्य को सर्वनाश से, एक शाकाहार ही बचा सकता है।"
प्रकृति ने मानव-आहार के लिये अनेक वनस्पति व स्वादिष्ट-पदार्थ उत्पन्न किये हैं। वहीं पशु और पक्षी मानव की सेवा करते हैं। वे एक ओर प्राकृतिक-संतुलन बनाए रखने में सहायक हैं, तो दूसरी ओर मानव का थोड़ा भी प्यार पाकर वफादार बनकर सेवा करते हैं। मांसाहार-हिंसा करता की जमीन से पैदा होनेवाला आहार है। पर्यावरण के प्रदूषित होने की समस्या हिंसा से जुड़ी हुई है, तथा अहिंसा प्रदूषण-मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है।
मांसाहार-पृथ्वी पर जलाभाव करने को उत्तरदायी है। 'फ्री-प्रेस' इंदौर के अनुसार लगातार मांसाहार के बढ़ने के कारण पश्चिम देशों, विशेषत: उत्तरी-अमेरिका में पानी के दुष्काल की भयावह-स्थिति पैदा हो गई है। प्राप्त आंकड़ों से जहाँ प्रति टन मांस के उत्पादन के लिये लगभग 5 करोड़ लीटर जल की जरूरत होती है। वहाँ प्रति टन चावल व गेहूँ के लिए क्रमश: 45 लाख लीटर व 5 लाख लीटर जल की जरूरत होती है। इसप्रकार अमेरिका में कत्लखानों के कारण पर्यावरण की जो विकट-स्थिति उत्पन्न हो रही है, वह भारत की होने को है। भारत पेट्रोल व विदेशी-मुद्रा के लिए पशुधन को समाप्त करके विदेशी लोगों की आपूर्ति कर रहा है, जिससे देश में लगभग 4800 बड़े कत्लखाने और हजारों छोटे-छोटे कत्लखाने हैं, जो प्रकृति और पर्यावरण के दुश्मन हैं।
दुनिया का कोई जीवधारी नहीं है, जो सिर्फ मांसाहार पर आश्रित हो। उसे प्रत्यक्ष या परोक्ष शरीर के चयापचय के संतुलन के लिये शाकाहार पर निर्भर रहना होता है। यह कुतर्क दिया जाता है कि यदि सारे लोग शाकाहारी हो जावें, तो शाकाहार कम पड़ जायेगा और पशु-पक्षियों की आबादी एक समस्या बन जायेगी। ऐसा सोचना गलत है। एक अर्थशास्त्री माल्थ्स का कहना है कि खाने-पीने की चीजों और जनसंख्या के बीच संतुलन प्रकृति स्वयं बनाए रखती है।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
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