Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 87
________________ से निश्चय ही बन्ध होता है, इसलिए श्रमणों ने सर्व परिग्रह को छोड़ा है। यदि निरपेक्ष त्याग न हो, तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती और जो भाव में अविशुद्ध है, उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है? उपधि के सद्भाव में उस भिक्षु के मूर्च्छा, आरम्भ या असंयम न हों, यह कैसे हो सकता है ? तथा जो परद्रव्य में रत हो, वह आत्मा को कैसे साध सकता है ? 2 जब कि जिनवरेन्द्रों ने मोक्षाभिलाषी के देह परिग्रह है' – ऐसा कहकर देह में भी अप्रतिकर्मपना कहा है, तब उसका यह स्पष्ट आशय है कि उसके अन्य परिग्रह कैसे हो सकता है?" भिक्षाचर्या, यथाजात रूप एवं ब्रह्म की अनुभूति हिन्दू-ग्रन्थ 'वृहदारण्यक उपनिषद्' में आया है कि आत्मविद् - व्यक्ति संतान, सांसारिक सम्पत्ति, मोह आदि छोड़ देते हैं और भिक्षाचर्या का आचरण करते हैं; अत: ब्राह्मण को चाहिए कि वह सम्पूर्ण-पाण्डित्य की प्राप्ति के उपरान्त बालक-सा बना रहे। ज्ञान एवं बाल्य के ऊपर उठकर उसे मुनि की स्थिति में आना चाहिए तथा मुनि या अमुनि के रूप से ऊपर उठकर उसे ब्राह्मण (जिसने ब्रह्म की अनुभूति कर ली हो ) बन जाना चाहिए।' जैनग्रन्थ प्रवचनसार में कहा गया है— उवयरणं जिणमग्गे लिंगं जहजादरूवमिदि भणिद । गुरुवयणं पिय विणओ सुत्तज्झयणं णिदिट्ठे । ।– (प्रवचनसार, 225 ) यथाजात रूप जो लिंग, वह जिनमार्ग में 'उपकरण' कहा गया है, गुरु के वचन, सूत्रों it अध्ययन और विनय भी 'उपकरण' कही गई है— ऍक्कं खलु तं भत्तं अपडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरण भिक्खेण दिवा ण रसार्वेक्खं ण मधु-मंसं । । – ( प्रवचनसार, 229 ) वास्तव में वह आहार एक बार, ऊनोदर, यथालब्ध, भिक्षाचरण से दिन में, रस की अपेक्षा से रहित और मधुमाँसरहित होता है। आत्मज्ञान मोक्षमार्ग का साधकतम है, इसे प्रकट करते हुए 'प्रवचनसार' में कहा है— जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवस्य - सहस्सकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण । । - ( प्रवचनसार, 238 ) जो कर्म अज्ञानी लक्षकोटि भवों में खपाता है, वह कर्म ज्ञानी तीन प्रकार से गुप्त होने सेौं उच्छ्वासमात्र में खपा देता है । जैनाचार्य रविषेण ने कहा है कि ब्राह्मण वे हैं, जो अहिंसाव्रत धारण करते हैं, महाव्रतरूपी लम्बी चोटी धारण करते हैं, ध्यानरूपी अग्नि में होम करते हैं तथा शान्त हैं और मुक्ति के सिद्ध करने में तत्पर रहते हैं। इसके विपरीत जो सब प्रकार के आरम्भ में प्रवृत्त हैं, निरन्तर कुशील में लीन रहते हैं तथा क्रियाहीन हैं । वे केवल 'ब्राह्मण' नामधारी ही हैं, वास्तविक ब्राह्मणत्व उनमें कुछ भी नहीं है। ऋषि, संयत, धीर, क्षान्त, प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर 2002 00 85

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