Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 86
________________ वैदिक और जैन संन्यासी में उल्लिखित समताएँ -डॉ. रमेशचन्द जैन समस्त परिवाह का त्याग 'वृहदारण्यक उपनिषद्' में आया है कि याज्ञवल्क्य ने परिव्राजक होने के समय अपनी स्त्री मैत्रेयी से सम्पत्ति को उस (मैत्रेयी) में और कात्यायनी में बाँट देने की चर्चा की। इसके कुछ अंश इसप्रकार हैं— याज्ञवल्क्य ने कहा कि “हे मैत्रेयी ! मैं गृहस्थाश्रम छोड़कर संन्यास लेना चाहता हूँ। इसके लिए मैं तुम्हारी अनुमति चाहता हूँ और ऐसा करने से पहिले मैं अपने धन का बंटवारा करके तुम्हें कात्यायनी से अलग कर देना चाहता हूँ।" याज्ञवल्क्य के द्वारा उपर्युक्त प्रकार से कही गई मैत्रेयी ने कहा कि “हे भगवन् ! क्या समस्त पृथ्वी के मेरे धन से भर जाने पर मैं सब दुःखों से मुक्त हो जाऊँगी?" याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि “ऐसा नहीं होगा। तुम्हारा जीवन वैसा ही होगा, जैसा धनिकों का होता है। धन से अमरपद की आशा नहीं।" याज्ञवल्क्य ने कहा कि “हे प्रिये ! तुम मीठी बात बोलती हो। आओ, बैठो। हम व्याख्या करके तुम्हें (मुक्ति का साधन) समझायेंगे। व्याख्या करते समय हमारी बातों पर ध्यान दो।" . याज्ञवल्क्य ने कहा कि “हे मैत्रेयी ! पत्नी को पति उसके प्रयोजन के लिये प्रिय नहीं' होता, प्रत्युत आत्मा के प्रयोजन के लिये प्रिय होता है। हे मैत्रेयी ! मनुष्य को सब पदार्थ उनके प्रयोजन के लिए प्रिय नहीं होते, प्रत्युत आत्मा के प्रयोजन के लिये प्रिय होते हैं। अत: हे मैत्रेयी ! आत्मा ही जानने योग्य पदार्थ है। उसी को सुनना चाहिए, उसी पर विचार करना चाहिए और उसी का निरन्तर चिन्तन करना चाहिए। हे मैत्रेयी ! आत्मा के दर्शन, श्रवण, मनन और विज्ञान से सब कुछ जाना जाता है।" इससे प्रकट होता है कि उन दिनों परिव्राजकों को घर-द्वार, पत्नी एवं सारी सम्पत्ति का परित्याग कर देना पड़ता था। जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने कहा हैहवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवो य कायचेट्ठम्हि । बंधो धुवमवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ।। -(प्रवचनसार, 219) कायचेष्टापूर्वक जीव के मरने पर बन्ध होता है, अथवा नहीं होता, किन्तु उपधि-परिग्रह 0084 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002

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