Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 88
________________ दान्त और जितेन्द्रिय मुनि ही वास्तविक ब्राह्मण हैं। ब्रह्मचर्य को धारण करनेवाला ब्राह्मण कहलाता है। लौंच क्रिया वैदिक-परम्परा में 'यजुर्वेद' के रुद्राध्याय में 'कुलञ्चानां पतये नमो नमः' कहकर केशलौंच करनेवालों के स्वामी को बारम्बार नमस्कार किया है।' 'जाबालोपनिषद्' (5) में लिखा है कि परिव्राट लोग विवर्णवास, मुण्डित सिर, बिना सम्पत्तिवाले, पवित्र, अद्रोही, भिक्षावृत्ति करनेवाले तथा ब्रह्म में संलग्न रहते थे। __'कल्पसूत्रचूर्णि' में कहा है— “केश से जीवों की हिंसा होती है; क्योंकि केश के भीगने से जूं उत्पन्न होते हैं। सिर खुजलाने पर उनकी हिंसा और सिर में नखक्षत हो जाता है। छुरे या कैंची से बालों को काटने से आज्ञाभंग दोष के साथ संयम और चारित्र की विराधना होती है। नाई अपने उस्तरे और कैंची को सचित्त जल से साफ करता है। अत: ‘पश्चात्-कर्मदोष' होता है। जैनशासन की अवहेलना भी होती है। इन सब दृष्टियों से श्रमणों को हाथों से केशलौंच करने का विधान किया गया है।" ___ 'मूलाचार' में प्रतिक्रमण-आवश्यक के अन्तर्गत दस-मुण्डों का वर्णन किया गया है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त न होने देना -ये पाँच इन्द्रियमुण्ड तथा वचोमुण्ड–अप्रस्तुत भाषण न करना, हस्तमुण्डअप्रस्तुत कार्यों में हाथ न फैलाना, उसे संकुचित रखना, पादमुण्ड—अयोग्य कार्यों में पैरों को प्रवृत्त न होने देना, मनोमुण्ड—मन के पापपूर्ण विचारों को नष्ट करना तथा तनुमुण्ड—शरीर को अशुभ पापकार्य में प्रवृत्त न होने देना। -इन दस मुण्डों से आत्मा पाप में प्रवृत्त नहीं होती, अत: उस आत्मा को 'मुण्डधारी' कहते हैं।' संन्यासी का आवास हिन्दू-परम्परा के अनुसार घर, पत्नी, पुत्रों एवं सम्पत्ति का त्याग कर संन्यासी को गाँव के बाहर रहना चाहिए, उसे बेघर का होना चाहिए: जब सूर्यास्त हो जाये, तो पेड़ों के नीचे या परित्यक्त-घर में रहना चाहिए और सदा एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलते रहना चाहिए। वह केवल वर्षा के मौसम में एक स्थान पर ठहर सकता है।" मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य 3/58) द्वारा उद्धृत शंख के वचन से पता चलता है कि संन्यासी वर्षा ऋतु में एक स्थान पर केवल दो मास तक रुक सकता है। कण्व का कहना है कि वह एक रात्रि गाँव में या पाँच दिन कस्बे में (वर्षा ऋतु को छोड़कर रह सकता है)।" ___जैनग्रन्थ प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि श्रामण्यार्थी बन्धुवर्ग से विदा माँगकर गुरु, स्त्री और पुत्र से मुक्त किया हुआ ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्याचार को अंगीकार कर जो श्रमण है, गुणाढ्य है, कुल-रूप तथा वय से विशिष्ट हैं, और श्रमणों को अति-इष्ट हैं, ऐसे गणी को 'मुझे स्वीकार करो' -ऐसा कहकर प्रणत होता है और 4086 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002

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