Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 23
________________ प्राकृत-अपभ्रंश शब्दों की अर्थवाचकता ___-डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य __ भाषाई पूर्वाग्रह के कारण एवं सांप्रदायिक-विद्वेष की प्रबलता से इस देश में भाषा के आधार पर वर्गभेद किये गये, तथा ऊँच-नीच की भावना को बढ़ावा दिया गया। अपनी बात बड़ी करने के लिए अनेक प्रकार के कल्पित-तों का सहारा लिया गया। इतना ही नहीं, अपनी भाषा को दैवीय-शक्तिसम्पन्न एवं अन्य लोगों की भाषा को तुच्छ बताया गया। भाषिक-विकास की परम्परा में जबकि ऐसी किसी परिकल्पना को स्थान ही नहीं है, फिर भी अपने को श्रेष्ठ एवं दूसरे को हीन' बताने की संकुचित मानसिकता के कारण ऐसे प्रयत्न कई शताब्दियों तक चलते रहे। खेद की बात तो यह है कि आज के वैज्ञानिक-युग में भी तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों के द्वारा भी ऐसी चर्चा की जाती है। प्रतीत होता है कि संत एकनाथ ने इसी भाषाई वर्गभेद की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा था कि संस्कृत वाणी देवे केली, प्राकृत काय चारो पासुनि झाली।' तो प्राकृत आदि जनभाषाएँ क्या चोरों के द्वारा बनायी गई हैं?" अर्थात् ये भाषाएँ भी तो उन्हीं वर्णों और मात्राओं से निर्मित हैं, और इनसे भी अर्थबोध होता है, तब इन्हें समान-सम्मान क्यों नहीं दिया जाता है? भाषाओं के साम्प्रदायिकीकरण का यह दृष्टिकोण समाज और राष्ट्र की अस्मिता के लिए तो घातक है ही, भाषाविज्ञान एवं व्याकरण की दृष्टि से भी नितान्त अनुचित है। ___ एक निष्पक्ष मनीषी एवं भारतीय न्यायशास्त्र के अधिकारी प्रकाण्ड विद्वान् की सारस्वत-लेखनी से प्रसूत यह आलेख प्रत्येक व्यक्ति को गम्भीरतापूर्वक पठनीय एवं मननीय तो है ही; अपने | और समाज के दृष्टिकोण का अध्ययनकर अनुकरणीय भी है। —सम्पादक 'शब्द अर्थ के वाचक हैं। यह सामान्यत: सिद्ध होने पर भी मीमांसक और वैयाकरणों का यह.आग्रह' है कि “सभी शब्दों में वाचकशक्ति नहीं है, किन्तु संस्कृत-शब्द ही साधु है और उन्हीं में वाचकशक्ति है। प्राकृत, अपभ्रंश आदि शब्द असाधु हैं, उनमें अर्थप्रतिपादन की शक्ति नहीं है। जहाँ-कहीं प्राकृत या अपभ्रंश-शब्दों के द्वारा अर्थप्रतीति देखी जाती है, वहाँ वह शक्ति-भ्रम से ही होती है , या उन प्राकृतादि असाधु-शब्दों को सुनकर प्रथम ही संस्कृत-साधु-शब्दों का स्मरण आता है और फिर उनसे अर्थबोध होता है।" ___इसतरह शब्दराशि के एक बड़े भाग को वाचकशक्ति से शून्य' कहनेवाले इस मत में एक विचित्र साम्प्रदायिक-भावना कार्य कर रही है। ये संस्कृत-शब्दों को 'साधु' कहकर प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 00 21

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