Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 76
________________ अर्थात् वे भी आदेश दे सकते हैं। गृहस्थाचार्य को आचार्य की भाँति दीक्षा दी जाती है दीक्षाचार्येण दीक्षेव दीयमानास्ति तत्क्रिया । - (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 648../) अर्थात् दीक्षाचार्य के द्वारा दी हुई दीक्षा के समान ही गृहस्थाचार्यों की क्रिया होती है । अव्रती गृहस्थाचार्य नहीं हो सकता न निषिद्धो यथाम्नायादव्रतिनां मनागपि । हिंसकश्चोपदेशोऽपि नोपयोज्योऽत्र कारणात् । । नूनं प्रोक्तोपदेशोऽपि न रागाय विरागिणाम् रागिणामेव रागाय ततोऽवश्यं निषेधितः । । - (पंचाध्यायी / उत्तरार्ध 649, 652 ) अर्थात् आदेश एवं उपदेश के विषय में अव्रती - गृहस्थों को जिसप्रकार दूसरे के लिये आम्नाय के अनुसार थोड़ा-सा भी उपदेश करना निषिद्ध नहीं है, उसीप्रकार किसी भी कारण से दूसरे के लिए हिंसा का उपदेश देना उचित नहीं है । निश्चय करके वीतरागियों का पूर्वोक्त उपदेश देना भी राग के लिए नहीं होता है; किन्तु सरागियों का ही पूर्वोक्त उपदेश राग के लिए होता है । इसलिये रागियों को उपदेश देने के लिये अवश्य निषेध किया है । यद्यपि इनमें प्रतिष्ठाचार्य, विधानाचार्य एवं गृहस्थाचार्य के लिए प्रायश: समान गुण - गरिमा का वर्णन किया गया है; किन्तु यदि ये तीनों समान ही होते, इनके कार्यक्षेत्र व योग्यताओं में कोई अन्तर नहीं होता, तो ये तीन अलग-अलग नामकरण ही नहीं बने होते । जहाँ तक विशेषज्ञ आचार्यों एवं मनीषियों से सम्पर्क संभव हो सका, मैंने इस जिज्ञासा का समाधान उनसे पूछा। उनके कथनों का सार-संक्षेप यही प्रतीत हुआ कि जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा कराने के लिये विशेष ज्ञानी. गुणी, चरित्रसम्पन्न, समाजशास्त्रवेत्ता, कुशल-वक्ता, निस्पृह एवं नियोजक व्यक्ति 'प्रतिष्ठाचार्य' पद के योग्य है। जो इनमें कुछ न्यून हैं, वे मात्र अन्य धार्मिक विधि-विधान के लिए उपयुक्त होने के कारण 'विधानाचार्य ' कहे जायेंगे तथा शादी-विवाह, गृहप्रवेश, दीपावली - पूँजन, खाता- -मुहूर्त आदि लौकिक गृहस्थाश्रम के प्रसंगों में जैन विधि-विधान के अनुरूप पूजा-अनुष्ठान आदि करानेवाले विद्वान् को 'गृहस्थाचार्य' कहा जाना चाहिये। ये विशेषत: दो व्यक्तियों (वर-वधू) को ब्रह्मचर्य से बाहर गृहस्थजीवन में प्रवेश करानेवाले होने से 'प्रतिष्ठाचार्य' एवं 'विधानाचार्य' के कार्यों के लिये उपयुक्त नहीं प्रतीत होते हैं । वैसे यह विषय पर्याप्त मनन-चिंतन एवं ऊहापोहपूर्वक विचारणीय, चर्चनीय है; . क्योंकि प्राचीन शास्त्रों में इस दिशा में कोई विशेष दिशानिर्देश नहीं मिलता तथा उपाधियों के अनुरूप कार्य एवं व्यक्तित्व में वैशिष्ट्य होना स्वाभाविक है । 00 74 प्राकृतविद्या+अक्तूबर-दिसम्बर 2002

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