Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 81
________________ अहिंसा में ही नैतिक, आध्यात्मिक तथा मानवीय तत्त्वों में गुणात्मक परिवर्तन लाने तथा मूल्यों की भूमिका बढ़ाने की क्षमता निहित है। शांति के अग्रदूत, अहिंसा के पुजारी भगवान् महावीर का यह अनूठा मंत्र है। इस मंत्र की पूर्णता तब तक नहीं हो सकती जब तक साधन-साध्य संकल्प की डोरी में अहिंसा को गूंथकर जन-जीवन के कल्याण के लिए उतारा न जाये। अहिंसा शुभ का प्रतीक है। यह सत्य रूप है, शुभ-संकल्प की विधि है जिसे जानने, जिसमें प्रीति करने तथा जिसका पालन करने में ही मानव-मात्र का कल्याण निहित है। आज 'अहिंसा' को मानव-मूल्य के रूप में, आदर्श-जीवन के रूप में, सामूहिक-संकल्प के रूप में, नित्य क्रांति के दर्शन के रूप में तथा मानव-धर्म के रूप में विचारने एवं प्रभावी बनाने की आवश्यकता महसूस हो रही है, ताकि व्यापक-शांति के लिये, आपसी संबंधों के गुणात्मक-विकास के लिये, जीवन में व्याप्त विषमता के उपचार के लिये, सक्रिय प्रेम और दया की शक्ति को विकसित करने के लिये, मानवाधिकारों की व्यापक रक्षा के लिये तथा स्वतंत्रता, समानता एवं भाईचारे पर आधारित समतामूलक समाज की स्थापना के लिये कारक के रूप में व्यापक प्रचार एवं प्रसार संभव हो सके। सन्दर्भग्रन्थ-सूची 1. प्रश्नव्याकरणसूत्र, 2.1, 21-22। 2. आचारांगसूत्र, 1.4.1.27। 3. तत्त्वार्थसूत्र, 10.3 । 4. वही, 1.1। 5. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 42। 6. भगवती आराधना, 7901 7. प्रश्नव्याकरणसूत्र, 1.20। 8. ओघनियुक्ति, 754 1 9. देवचन्द्र जी कृत अध्यात्मगीता। 10. सूत्रकृतांगसूत्र, 1.4.10 । 11. दशवैकालिकसूत्र. 6.9। 12. भक्तपरिज्ञा, 91। 13. महाभारत (शांतिपर्व), 15.25.26 । 14. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय। 15. प्रवचनसार, 3.17 1 16. आचारांगसूत्र, 1.3.3. । 17. वही, 1.5.5। 18. दशवैकालिकसूत्र, 6.11। 19. उत्तराध्ययनसूत्र, 6.7। 20. आचारांगसूत्र, 1.3.3. । 21. वही, 1.5.5.1 22. भक्तपरिज्ञा, 93।। वेद और पुराण चाहे जो भी कहें, ऋषभदेव की कृच्छ्र-साधना का मेल 'ऋग्वेद' की प्रवृत्तिमार्गी-धारा से नहीं बैठता। वेदोल्लिखित होने पर भी ऋषभदेव वेद-पूर्व परम्परा के प्रतिनिधि हैं। जब आर्य इस देश में फैले, उससे पहले ही यहाँ वैराग्य, कृच्छ्र-साधना, योगाचार और तपश्चर्या की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी। इस प्रथा का एक विकास जैनधर्म में हुआ और दूसरा शैवधर्म में। ऋषभदेव भी योगिराज के रूप में अभिहित हुए हैं। उनके योगयुक्त व्यक्तित्व से शंकर के योगीरूप का काफी सामीप्य है। मोहंजोदरो में योग-प्रथा सूचक जो निशान मिले हैं, उनका सम्बन्ध जैन और शैव, दोनों ही परम्पराओं से जोड़ा जा सकता है। -(साभार उद्धृत, संस्कृति के चार अध्याय', लेखक— रामधारी सिंह दिनकर, प्रकाशक– लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृष्ठ 110) प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 1079

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