Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 80
________________ मनोवैज्ञानिक सत्य के साथ-साथ बौद्धिक तुल्यताबोध को भी अहिंसा का आधार बताते हुये कहा गया है कि जो अपनी पीड़ा को जान पाता है, वही तुल्यताबोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को भी समझ सकता है।" वास्तव में अहिंसा का मूलाधार जीवन के प्रति सम्मान, समत्वभावना एवं अद्वैतभावना है। समत्वभाव से हमारे अन्दर दूसरे प्राणियों के प्रति प्रेम और अद्वैतभाव से एकात्मभावना को बल मिलता है, जिससे अहिंसा का विकास होता है। 'दशवैकालिकसूत्र' में कहा गया है कि सभी प्राणी जीवित रहना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता। अत: निर्ग्रन्थ प्राणवध (हिंसा) का निषेध करते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र' में समत्व के आधार पर अहिंसा के सिद्धांत की स्थापना करते हुए कहा गया है कि भय और बैर से मुक्त साधक-जीवन के प्रति प्रेम रखनेवाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के समान जानकर उनकी कभी भी हिंसा न करे। 'आचारांगसूत्र' में सभी जीवों के प्रति आत्मीयता की भावना व्यक्त करते हुये कहा गया है कि जो लोक (समस्त जैविक-जगत्) का अपलाप करता है, वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है। भगवान् महावीर आत्मीयता की इस भावना को स्पष्ट करते हुये कहते हैं—जिसे तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शासित करना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है'। इसीप्रकार 'भक्तपरिज्ञा' में भी कहा गया है कि किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वास्तव में अपनी ही हत्या है और अन्य जीवों पर दया अपने ही ऊपर दया है।" इसप्रकार जैनधर्म अहिंसा के सिद्धांत के रूप में सभी जीवों के प्रति सहअस्तित्व की भावना को प्रोत्साहित करता है। ____ आज की वैश्विक-स्थिति विज्ञान एवं प्रविधि के साथ-साथ उपभोक्ता-संस्कृति के विकास की स्थिति का पर्याय बन चुका है। यह युग ऐसा लगता है कि विषमता, अव्यवस्था तथा अशांति का युग है। समाज हिंसा के बहुविध कांटों में जकड़ा हुआ है। वह क्षेत्रीयता, नृजातीयता, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक रूढ़िवादिता, आतंकवाद तथा अपराधीकरण जैसे बहु-कांटेदार हिंसा का सामना कर रहा है। व्यक्ति-विशेष असावधानी, लापरवाही तथा कुंठाओं के बीच जी रहा है। समाज दुर्व्यवस्था का शिकार बना हुआ है। देश तथा विश्व में किसी न किसी प्रकार की अशांति व्याप्त है, क्रम-भंग का वातावरण है। असंतुलित पर्यावरण एवं भौतिक सुखों में लिप्त अन्धी लोलुपता का शिकार तथा अज्ञान से उत्पन्न असहिष्णुता, अनादर एवं घृणा के भाव किसी न किसी रूप में विश्व के कोने-कोने में व्याप्त हैं। यदि गहराई से सोचा जाए, तो लगता है कि प्रत्येक प्राणी शांति की खोज में हैं, व्यवस्था की चाह तथा अहिंसक-वातावरण उसके लिए मृग-मरीचिका की तरह है। ऐसी स्थिति में वर्द्धमान महावीर के उपदेशों की जितनी आवश्यकता महसूस हो रही है, शायद उतनी अनिर्वायता की अनुभूति स्वयं उनके समय में भी नहीं हो। आज उनके द्वारा बतलाया गया अहिंसा का मार्ग व्यापक-शांति के लिये एक भव्य-आदर्श बन चुका है। 1078 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 .

Loading...

Page Navigation
1 ... 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116