Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 78
________________ जीव (या आत्मा) है जो अनन्त-चतुष्टय (अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तशक्ति तथा अनन्तसुख) युक्त है तथा जो शारीरिक मृत्यु के साथ नहीं मरता। मनुष्य की वर्तमानस्थिति बन्धन की स्थिति है। यह स्थिति पुद्गलों से संबंधित है, जहाँ जीव ने अपना मौलिक स्वरूप खो दिया है। जैनदर्शन के अनुसार जीव या आत्मा का मनुष्य के शरीर के साथ एक निरन्तर संबंध ही मनुष्य के बंधन का कारण है। अज्ञानता के कारण मनुष्य वासना का दास बनकर नानाप्रकार के कर्म करता है। इसी कर्म-पुद्गल से आच्छादित होकर जीव जन्म-जन्मान्तर में कष्ट भोगता रहता है। इसप्रकार मनुष्य अपने बीते हुए कर्मों का उत्पाद है। किन्तु, जैनदर्शन मानता है कि कर्म करने में मनुष्य को विचारों की स्वतंत्रता (Freedom of will) भी प्राप्त है, जिसके कारण वह अपने को निश्चित कर सकता है। मनुष्य कर्म करने के लिए स्वतंत्र है तथा वह जो कुछ भी अपने को बना पाता है, वह उसकी अपनी देन है। जैनदर्शन की यह स्वीकारोक्ति आधुनिकअस्तित्ववाद की पुरोगामी प्रतीत होती है। ___ यद्यपि जैनदर्शन घोषितरूप में अनीश्वरवादी-दर्शन है; किन्तु यहाँ ईश्वर को रूढ़ अर्थ में न लेकर उसकी अवधारणा का विकास मनुष्य की अवधारणा के साथ होता है। मनुष्य अपनी असीम-संभावनाओं के साथ कर्म करता हुआ जन्म-पुनर्जन्म की निरन्तर कड़ी से मुक्त हो सकता है और उन सारे गुणों को प्राप्त कर सकता है, जो एक पूर्ण ईश्वर के लिए वर्णित है। इसप्रकार मनुष्य का ईश्वरीकरण ही मानव प्रयासों का लक्ष्य है, उसकी भविव्यता है। मानव-आत्मा का आलोक कर्म-पुद्गलजनित कणों से आच्छादित होने के कारण ढंका होता है, यही उसका बन्धन है। मनुष्य अपने प्रयासों से इन पुद्गल-जनित बाधाओं को दूर कर अनन्त-चतुष्टयरूप पूर्णता को प्राप्त कर सकता है। इसके लिए संवर द्वारा जीव की ओर नये पुद्गल के आस्रव को रोकना एवं निर्जरा द्वारा पुराने पुद्गल का क्षय होना आवश्यक है। सभी कर्म-पुद्गलों का आत्यन्तिक-क्षय ही मोक्ष है। जैसा कि 'सर्वदर्शन-संग्रह' में कहा गया है 'आम्रवोभवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमार्हती दृष्टिरन्यदस्य: प्रपंचनम् ।।" जैनधर्म में संवर और निर्जरा के लिए विशेष रास्ते प्रस्तुत किये गये हैंसम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। जैनधर्म के ये 'त्रिरत्न' मोक्ष-प्राप्ति के मार्ग माने गये हैं। जैन अध्यात्म-मार्ग के पथिक को जैन-तीर्थकरों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों एवं तत्त्वों का यथार्थज्ञान तथा उनके प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा-रखते हुए उसे अपने आचरण में चरितार्थ करने की अनिवार्यता है। इसके लिए पंचव्रत-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का मन, वचन और कर्म से पालन आवश्यक है। इसमें भी अहिंसा ही प्रमुख है; क्योंकि अन्य चारों व्रतों का व्रतत्व अहिंसामूलक होने पर ही निर्भर है। 0076 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002

Loading...

Page Navigation
1 ... 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116