Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 77
________________ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जैनधर्म-दर्शन के अहिंसा-विचार की प्रासंगिकता . -सुनील कुमार सिंह सम्पर्क साहित्य के अध्ययन के आधार पर इसे अस्वीकारा नहीं जा सकता कि जैनधर्म-दर्शन संसार की प्रथम धार्मिक संस्था का रूप है, जहाँ अहिंसा के मूल नैतिक सिद्धांत की संस्थापना की गई है। 'धर्म' शब्द संस्कृत के 'धृ' धातु से व्युत्पन्न है। जिसका अर्थ होता है— धारण करना' (धारयति इति स धर्म:)। अब प्रश्न है कि क्या धारण किया जाये. क्या धारण करने योग्य है या किसे धारण करना है? जैनधर्म के अनुसार वैसे आचरण को धारण करना है जो अहिंसामूलक हो. यही मानव का धर्म है। ऐसी लोकोक्ति है कि 'जीवो जीवस्य जीवनम् ।' अर्थात् जीवों का जीवन परस्पर निर्भर है। परन्तु, जैनधर्म की यह धारणा है कि 'परस्परोपग्रहोजीवानाम्' अर्थात् जीवों का अस्तित्व परस्पर निर्भर है। इसी धारणावश अहिंसा को दवी स्वरूप' मानते हुये 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में कहा गया है कि भयभीतों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य जैसे जहाज, रोगियों को जैसे औषधि और वन में जैसे सार्थवाह का साथ आधारभूत है; वैसे ही अहिंसा प्राणियों के लिये आधारभूत है।' इसी भावना के आधार पर सभी अर्हत् उपदेश करते हैं कि किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार का परिताप, उद्वेग या दुख: नहीं देना ही शुद्ध, नित्य एवं शाश्वत धर्म है।' ___ जैनदर्शन एक यथार्थवादी दर्शन है, जो मानव एवं उसकी भवितव्यता की व्याख्या को यथार्थवादी धरातल पर उपस्थित करता है। यहाँ अनुभवातीत सत्ता का कोई स्थान नहीं है और न ही ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने या सिद्ध करने की ही आवश्यकता समझी गई है। जैन विचार-परम्परा में कर्म एवं पुनर्जन्म में विश्वास किया गया है और यह माना गया है कि जीव अपने कर्मों एवं संस्कारों के अनुसार ही शरीर धारण करता है। यहाँ यह माना गया है कि वानस्पत-जगत् से मानव-जगत् तक के सभी जीवित प्राणियों के अन्दर चेतना है; लेकिन मनुष्य में यह चेतना विकसित-अवस्था में होने से वह पूरे ब्रह्माण्ड में सबसे अधिक गतिशील और क्षमताओं से युक्त प्राणी है। इसके अन्दर एक प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 0075

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