Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 79
________________ इसप्रकार अहिंसा जैनधर्मरूपी शरीर की आत्मा है। जैनशास्त्र में प्रतिपादित अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, समतावाद जैसे सिद्धांतों का आधार अहिंसा ही है। जैनधर्म के आचार्य अमृतचन्द्र सूरि सभी आचार-नियमों को अहिंसा में ही समाहित मानते हैं। उनके अनुसार जितने भी नैतिक-नियम हैं, वे जन-साधारण को समझाने के लिए हैं। वस्तुत: वह अहिंसा के ही विभिन्न पक्ष हैं। 'भगवतीआराधना' में भी दर्शाया गया है कि अहिंसा सब आश्रमों का हृदय है, सब शास्त्रों का गर्भ है। जैनधर्म में अहिंसा का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसका पता 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' को देखने से मिलता है, जहाँ अहिंसा के आठ पर्यायवाची शब्द गिनाते हुए धर्म-संबंधी सभी नियमों-उपनियमों को उसमें समाहित किया गया है।' इसप्रकार अहिंसारूपी धुरी के चारों ओर ही जैनधर्मरूपी पहिया चलता है। जैनधर्म में सभी जगह आत्मभाव करुणा से मैत्री की विधायक-अनुभूति अहिंसा की धारा में प्रवाहित हुई है। अहिंसा आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की असंयत-अवस्था हिंसा है और संयत-अवस्था अहिंसा। आचार्य भद्रबाहु लिखते हैं कि पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा ही अहिंसा है। प्रमत्त आत्मा हिंसक है, जबकि अप्रमत्त-आत्मा अहिंसक। आत्मगुण का हनन करनेवाला वस्तुत: हिंसक होता है और आत्मगुण की रक्षा करनेवाला अहिंसक।' इसप्रकार ज्ञानी या विद्वान् वही है, जो अहिंसक है। सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है कि ज्ञानी होने का अर्थ है कि प्राणी की हिंसा न करें । अहिंसा ही सभी धर्मों का सार है। इसका सदा पालन करना चाहिये। भगवान् महावीर ने सभी प्राणियों की भलाई में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ साधन बतलाया है।" जैनधर्म में अहिंसा को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाते हुए कहा गया है कि अहिंसा के समान इस संसार में कोई धर्म नहीं है।" गोस्वामी तुलसीदास इसी भावना को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- 'परहित-सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा-सम नहि अधमाई। 'मनुस्मृति' में भी कहा गया है— 'अहिंसा परमो धर्म:' । जैनधर्म संपूर्ण लोक-लोकान्तरों को जीव से व्याप्त मानता है। ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि हिंसा से कैसे बचा जाये? 'महाभारत' में भी सम्पूर्ण जगत् को जीवों से व्याप्त मानकर यही प्रश्न उठाया गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सभी धर्मों में हिंसा और अहिंसा को मनोदशा पर निर्धारित किया गया है। जैनधर्म में भी हिंसा-अहिंसा को मनोभाव पर निर्धारित किया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार रागादि कषायों से ऊपर उठकर नियमित जीवन जीते हुए भी यदि कोई प्राणघात हो जाये, तो वह पाप का कारण नहीं होता। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि बाहर से प्राणी मरे 'या जिए, असंयताचारी को हिंसा का दोष निश्चितरूप से लगता है; परन्तु जो संयताचारी है, अहिंसा की साधना के लिए प्रयत्नशील है, उसको बाहर से होनेवाली हिंसा से कर्मबन्धन नहीं होता। जैनधर्म में अहिंसा का आधार जिजीविषा और सुख मानते हुए कहा गया है कि सभी प्राणियों की जिजीविषा प्रधान है एवं सभी को सुख अनुकूल तथा दु:ख प्रतिकूल है। इस प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 0077.

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