Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 75
________________ अर्थ :- देश-काल आदि के भाव को जाननेवाला, निर्मल, बुद्धिमान, श्रेष्ठ, समीचीन-वाणी आदि गुणों से युक्त याजक' जिनशास्त्र में प्रशंसा-योग्य माना गया है। -('श्री सिद्धचक्रमंडल विधान', पृष्ठ 1) . दर्शन-ज्ञान-चारित्र-संयुतो ममतातिग:। प्राज्ञ: प्रश्नसहश्चात्र, गुरु: स्यात् शान्तिनिष्ठितः ।। अर्थ :- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से संयुक्त, ममतारहित, विद्वान, प्रश्नकर्ता एवं प्रश्न का आदर करनेवाला, क्रोधरहित, शान्तचित्त व्यक्ति विधानाचार्य के योग्य कहा गया है। स्याद्वाद-धुर्योऽक्षरदोषवेत्ता निरालसो रोगविहीनदेहः । प्राय: प्रकर्ता दम-दान-शीलो जितेन्द्रियो देव-गुरु-प्रमाणः ।। अर्थ :- स्याद्वाद-विद्या में प्रवीण, अक्षर से उदात्त, सूक्ष्म-दोषों को जाननेवाला, आलस्य-रहित, नीरोगी, क्रियाकुशील, दमी, दानी, शीलवान्, इन्द्रियविजेता, देव-शास्त्र-गुरु को प्रमाण माननेवाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ-विधानाचार्य कहलाता है। बाल नहीं होय, नहीं वृद्ध, नहीं हीन अंग, क्रोधी क्रियाहीन नहिं, मूरख गनीजिये। दुष्ट नहीं होय, नहीं व्यसन-विर्षे सुरत, पूजा-पाठ बाँचने में बुद्धिसार लीजिए।। दयाकरि भीगि रह्यो हृदयकमल जास, सुन्दर सरूप पाय दान सदा कीजिये। मीठे हैं वचन मुख अक्षर स्पष्ट कहै, गहै बिनै गुरु की सो 'पण्डित' कहीजिये ।। -(वृहद् श्री सिद्धचक्रमंडल विधान'. पृष्ठ 2-3) देश-काल-विधि-निपुणमति निर्मलभाव उदार। मधुर-बैन नैना-सुघर सो याजक निरधार।। _ . -(सिद्धचक्रविधान, सन्त लाल कवि) प्रथम विधानाचार्य पुरुष सज्जाति सम्यक्त्वी हो। देशव्रती श्रद्धालु पापभीरु निर्लोभी सुधी हो।। ज्योर्तिविद् हो मंत्र-तंत्रविद् विधि-विधान का ज्ञानी। प्रभावना करने का इच्छुक भविजन-हितकर-वाणी।। चारों अनुयोगों का ज्ञाता वक्ता-श्रेष्ठ कुशल हो। पूजा-जयमालाओं के अर्थों का उपदेशक भी वह हो।। . आगम के अनुकूल बोलता गुरु-उपासना करता। ऐसा विधानकारक विद्वान् जगत् में शांति करता।। -(कल्पद्रुम विधान, आर्यिका ज्ञानमती, पृष्ठ 2) गृहस्थाचार्य न निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम्...। -(पंचाध्यायी/उत्तरार्ध 648) । अर्थात् व्रती-गृहस्थों को भी आचार्यों के समान आदेश करना निषिद्ध नहीं है। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 1073

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