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श्रावकों में आचार्य ___ श्रावकों में भी यों तो अनेक प्रकार के आचार्यों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उनमें से मुख्य तीन हैं- 1. प्रतिष्ठाचार्य , 2. विधानाचार्य और 3. गृहस्थाचार्य । शास्त्रों में इन तीनों प्रकार के आचार्यों का जो परिचय प्राप्त होता है, वह संक्षेपत: निम्नानुसार है'प्रतिष्ठाचार्य' का लक्षण
देस-कुल-जाइ-सुद्धो णिरुवम-अंगो विसुद्धसम्मत्तो। पढमाणिओग-कुसलो पइट्ठालक्खण-विहि-विदण्णू ।। सावय-गुणोववेदी उवासयज्झयण-सत्थ-थिरबुद्धी। एवं गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिदो।।
_ -(वसुनन्दि श्रावकाचार, 388-389) अर्थ :- जो देश, कुल और जाति से शुद्ध हो, निरुपम-अंग का धारक हो, विशुद्धसम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोग में कुशल हो, प्रतिष्ठा की लक्षण-विधि का जानकार हो, श्रावक के गुणों से युक्त हो, उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्र में स्थिरबुद्धि हो, - इसप्रकार के गुणवाला जिनशासन में 'प्रतिष्ठाचार्य' कहा गया है।
स्याद्वाद-विद्या में निपुण, शुद्ध-उच्चारणवाला, आलस्यरहित, स्वस्थ, क्रिया-कुशल, दया- दान-शीलवान्, इन्द्रियविजयी, देव-गुरु-भक्त, शास्त्रज्ञ, धर्मोपदेशक, क्षमावान्, राजादिमान्य, व्रती, दूरदर्शी, शंका-समाधानकर्ता, सद्ब्राह्मण या उत्तम-कुलवाला, आत्मज्ञ, जिनधर्मानुयायी, गुरु से मंत्र-शिक्षा प्राप्त, हविष्यान्न (घृतमिश्रित चरु-भात-शब्दरत्नाकर कोश व आप्टे के कोशानुसार) का भोजन करनेवाला रात्रिभोजन का त्यागी, निद्राविजयी, नि:स्पृह, परदुःखहर्ता, विधिज्ञ और उपसर्गहर्ता प्रतिष्ठाचार्य होता है। लोभी, क्रोधी, संस्कृत-व्याकरण से अनभिज्ञ और अशांत प्रतिष्ठाचार्य त्याज्य है। प्रतिष्ठाचार्य की योग्यता
अनूचान: श्रोत्रियश्च प्रतिष्ठाचार्य आश्रयः । समावृत्त: प्राड्विवाक: समाचार्यादिनामयुक् । 2551 स्याद्वादधुर्योऽक्षरदोषवेत्ता निरालसो रोगविहीनदेहः । प्राय: प्रकर्ता दम-दान-शीलो जितेन्द्रियो देव-गुरु-प्रमाण: । 256। शास्त्रार्थ-सम्पत्ति-विदीर्णवादो धर्मोपदेश-प्रणय: क्षमावान् । राजादिमान्यो नययोगभाजी तपोव्रतानुष्ठित-पूतदेहः । 2571 पूर्वनिमित्ताद्यनुमापकोऽर्थ-संदेहहारी यजनैकचित्त: । सद्ब्राह्मणो ब्रह्मविदांवरिष्ठो जिनकधर्मा गुरुदत्तमन्त्रः । 258। भुक्त्वा हविष्यान्नमरात्रिभोजी निद्रां विजेतुं विहितो यमश्च । गतस्पृहो भक्तिपरात्मदुःख-प्रहाणये सिद्धमनुर्विधिज्ञः । 259।
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
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