Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 71
________________ जैन-परम्परा में आचार्यत्व -डॉ. सुदीप जैन जैन-परम्परा में 'आचार्य' शब्द 'बहुआयामी अर्थों में प्रचलित रहा है। जहाँ पंच-परमेष्ठी के रूप में तृतीय-परमेष्ठी का वाचक यह शब्द मूलत: माना गया, वहीं श्रमणों और श्रावकों में आचार्य-परमेष्ठी के अतिरिक्त अन्य-श्रमणों और श्रावकों के लिये भी 'आचार्य' की उपाधि प्रयुक्त हुई है। इतना विशेष है कि उनमें 'आचार्य' शब्द के पहले कुछ और भी जुड़ा हुआ होता है। श्रमणों में जहाँ एलाचार्य, बालाचार्य, निर्यापकाचार्य आदि के वर्गीकरण मिलते हैं, वहीं श्रावकों में प्रतिष्ठाचार्य, विधानाचार्य एवं गृहस्थाचार्य आदि पदों का उल्लेख जैन-परम्परा में प्राप्त होता है। आधुनिक-काल में तो शैक्षिक-व्यवस्था में स्नातकोत्तर-उपाधि को ही 'आचार्य'-संज्ञा दी जाने लगी है, और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर्स को भी हिन्दी में 'आचार्य' ही कहा गया है, कुछ लोग तो वंश-परम्परागत रूप से 'आचार्य' को उपनाम की तरह प्रयोग करने लगे हैं। तथा शिल्प-शास्त्र आदि के विशेषज्ञों को भी 'आचार्य' कहा जाता है। ___ यह देखा जाता है कि श्रेष्ठता के प्रतीक 'आचार्य' की उपाधि का प्रयोग आज बहुत से लोग यादृच्छिकरूप से करने लगे हैं, तथा इनमें से किस श्रेणी के आचार्य की क्या अनिवार्य योग्यता है, तथा वह उपाधि किस स्तर पर प्रयोग की जा सकती है?- इसका विवेक प्राय: लोग नहीं करते हैं। साथ ही यह भी एक विडम्बनापूर्ण-स्थिति है कि स्वयं कार्य किसी पद के अनुरूप कर रहे हैं, और अपने को और अधिक ऊँचे पद का प्रयोग लोग करते रहते हैं। इसके साथ यह भी देखा जा रहा है कि जो लोग जिस श्रेणी के आचार्यत्व के लिये कदापि उपयुक्त नहीं हैं, वे भी बेहिचक उस श्रेणी का आचार्यत्व निष्पादित कर रहे हैं, तथा समाज को इस बारे में कोई जानकारी न होने के कारण वह सब कुछ आँख बंद करके विनम्रभाव से स्वीकार कर रही है। समाज की यह विनम्रता अनापत्ति के योग्य हो सकती है, किन्तु अयोग्य-व्यक्ति के द्वारा श्रेष्ठ-कार्य को आचार-विचार की पवित्रता एवं अपेक्षित-ज्ञान के बिना करने से उस कार्य की गरिमा की सुरक्षा पर निश्चितरूप से प्रश्नचिह्न लग जाता है। अत: यहाँ पर जैन-परम्परा में प्राप्त होने वाले विभिन्न प्रकार के आचार्यों का संक्षिप्त परिचय और वर्तमान-स्थिति का समांकलन प्रस्तुत करने की चेष्टा की जा रही है। प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 0069

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