Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 24
________________ और इनमें ही वाचकशक्ति मानकर ही चुप नहीं हो जाते, किन्तु साधु-शब्द के उच्चारण को 'धर्म' और 'पुण्य' मानते हैं और उसे ही कर्त्तव्य-विधि में शामिल करते हैं तथा 'असाधु' अपभ्रंश-शब्दों के उच्चारण को शक्ति-शून्य' ही नहीं, ‘पाप का कारण' भी कहते हैं। इसका मूलकारण है संस्कृत में रचे गये वेद को 'धर्म्य' और 'प्रमाण' मानना तथा प्राकृत, पालि आदि भाषाओं में रचे गये जैन, बौद्ध आदि आगमों को 'अधर्म्य' और 'अप्रमाण' घोषित करना। स्त्री और शूद्रों को धर्म के अधिकारों से वंचित करने के अभिप्राय से उनके लिये संस्कृत-शब्दों का उच्चारण ही निषिद्ध कर दिया गया। नाटकों में स्त्री और शूद्र पात्रों के मुख से प्राकृत का ही उच्चारण कराया गया है। 'ब्राह्मण को साधु शब्द बोलना चाहिये, अपभ्रंश या म्लेच्छ-शब्दों का व्यवहार नहीं करना चाहिए' आदि विधिवाक्यों की सृष्टि का एक ही अभिप्राय है कि धर्म में वेद और वेदोपजीवी-वर्ग का अबाध-अधिकार कायम रहे। अधिकार के हथियाने की इस भावना ने वस्तु के स्वरूप में ही विपर्यास उत्पन्न कर देने का चक्र चलाया और एकमात्र संकेत के बल पर अर्थबाध करनेवाले शब्दों में भी जातिभेद उत्पन्न कर दिया गया। इतना ही नहीं, 'असाधु दुष्ट-शब्दों का उच्चारण वज्र बनकर इन्द्र की तरह जिह्वा को छेद देगा' —यह भी दिखाया गया। तात्पर्य यह कि वर्गभेद के विशेषाधिकारों का कुचक्र भाषा के क्षेत्र में भी अबाध-गति से चला। ___ वाक्यपदीय' (1-27) में शिष्ट-पुरुषों के द्वारा जिन शब्दों का उच्चारण हुआ है, ऐसे आगमसिद्ध-शब्दों को साधु' और 'धर्म का साधन' माना है। यद्यपि अपभ्रंश आदि शब्दों के द्वारा अर्थप्रतीति होती है, पर चूँकि उनका प्रयोग शिष्टजन आगमों में नहीं करते हैं; इसलिए वे 'असाधु' हैं। तन्त्रवार्तिक' (पृ. 278) आदि में भी व्याकरणसिद्ध-शब्दों को साधु' और 'वाचकशक्तियुक्त' कहा है और साधुत्व का आधार वृत्तिमत्त्व (संकेत से अर्थबोध करना) को न मानकर व्याकरण-निष्पन्नत्व को ही अर्थबोध और साधुत्व का आधार माना गया है। इसतरह जब अर्थबोधक-शक्ति संस्कृत-शब्दों में ही मानी गई, तब यह प्रश्न स्वाभाविक था कि 'प्राकृत और अपभ्रंश आदि शब्दों से जो अर्थबोध होता है, वह कैसे?' इसका समाधान-द्राविड़ी प्राणायाम के ढंग से किया है। उनका कहना है कि 'प्राकृत आदि शब्दों को सुनकर पहले संस्कृत-शब्दों का स्मरण होता है और पीछे उनसे अर्थबोध होता है। जिन लोगों को संस्कृत-शब्दों का ज्ञान नहीं है, उन्हें प्रकरण, अर्थाध्याहार आदि के द्वारा लक्षणा से अर्थबोध होता है। जैसेकि बालक 'अम्मा अम्मा' आदि रूप से अस्पष्ट उच्चारण करता है, पर सुननेवालों को तद्वाचक मूल 'अम्ब' शब्द का स्मरण होकर ही अर्थप्रतीति होती है, उसीतरह प्राकृत आदि शब्दों से भी संस्कृत शब्दों का स्मरण करके ही अर्थबोध होता है। तात्पर्य यह कि कहीं पर साधु-शब्द के स्मरण के द्वारा, कहीं वाचकशक्ति के भ्रम से, कहीं प्रकरण और अविनाभावी-अर्थ का ज्ञान आदि निमित्त से 0022 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002

Loading...

Page Navigation
1 ... 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116