Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 59
________________ कच्चायन- “तिचतुन्नं, तिस्सो चतस्सो तयो चत्तारो तीणि चत्तारि"- (2/21 14)। उदाहरण—तिस्सो वेदना, तया जना, चत्तारि अरियसच्चानि। 73. सकारादेश कातन्त्र- “सौ स:, तस्य च" – (2/3/32-33)। उदाहरण—असौ, सः। कच्चायन- “अमुस्स मो सं, एततेसं तो” – (2/3/13-14)। उदाहरण—असु राजा, एसो पुरिसो, सो पुरिसो। 74. 'अयम्' आदेश कातका- "इदमियमयम्पुंसि" – (2/3/34)। उदाहरण—अयं पुमान्। कच्चायन- “अनपुंसकस्सायं सिम्हि" - (2/3/12)। उदाहरण—अयं पुरिसो। 75. 'अत्' आदेश कातला- “अद् व्यञ्जनेऽनक्” – (2/3/35)। उदाहरण—आभ्याम्। कच्चायन- “इम सहस्स च" -(2/3/17) । उदाहरण-अस्स, अस्मा। .....76. 'अन' आदेश कातला- "टौसोरनः" – (2/3/36) । उदाहरण—अनेन, अनयोः । कच्चायन- “अंनिमि नाम्हि च" -(2/3/11)। उदाहरण—अनेन। 77. स्यादि विभक्तियों का लोप कातला- "अव्ययाच्च" -(2/4/4)। उदाहरण—प्रात:, एव। कच्चायन- “सब्बासमावसोपसग्गनिपातादीहि च" – (2/4/11)। उदाहरणयथा, खलु। भगवान मी समतापी आनंद की प्रामव्यस्त है “समामृतानन्दभरेण पीडिते। भवन्मन: कुड्मलके स्फुटयत्यति।। विगाह्य लीलामुदियाय केवलं । स्फुटैकविश्वोदरदीपकार्चिषः ।।" -(आचार्य अमृतचन्द्र, लघुतत्त्वस्फोट 11, पृष्ठ 51) सान्वयार्थ :- (समामृतानन्द भरेण) समतारूपी अमृत जन्य आनन्द के भार से (पीडिते) पीडित-युक्त (भवन्मनः कुड्मलके स्फुटयत्यति) आपके मनरूपी कुड्मल-कली के सर्वथा विकसित हो जाने पर (लीलां विगाह्य) अनन्त आनन्द की क्रीडा में प्रवेश करके (स्फुटैक विश्वोदर दीप-कार्चिषः केवलंउदियाय) समस्त विश्व के उदर को स्फुट रूप से प्रकट करने वाले दीपक की ज्योति स्वरूप आपको केवलज्ञान प्रकट हुआ। तात्पर्य उसका यही है कि जब समतारूपी अमृत का आनन्द आपकी आत्मा में भर गया तब समस्त विश्व को प्रकाशित करनेवाला केवलज्ञान आपको प्राप्त हुआ यही आपकी लीला है। - (अनुवाद- आचार्य विद्यानन्द मुनिराज) .. प्राकृतविद्या+ अक्तूबर-दिसम्बर '2002 0057

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