Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 68
________________ के कारण नहीं हैं, सुख का कारण तो मात्र ज्ञान ही है। यथा "धन कन कंचन राजसुख सबहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में, एक यथारथ ज्ञान ।।" --(महाकवि भूधरदास, बारह भावना) . परन्तु यदि जानना मात्र सुख का कारण हो, तो नहीं जानना' दु:ख का कारण ठहरेगा, जो न्यायसंगत नहीं है, असत्य है। आचार्यकल्प पं. टोडरमल भी अपने 'मोक्षमार्गप्रकाशक में लिखते हैं___ "यदि जानना न होना दु:ख का कारण हो, तो पुद्गल के भी दुःख ठहरे; परन्तु दुःख का मूलकारण तो इच्छा है और इच्छा क्षयोपशम से होती है; इसलिए क्षयोपशम को दु:ख का कारण कहा है। परमार्थ से क्षयोपशम भी दु:ख का कारण नहीं है।" अध्यात्मशास्त्रों में भी इसीलिए जिसे मात्र ज्ञान हो उसे 'ज्ञानी' नहीं कहते हैं, अपितु जिसे स्व-पर-भेदविज्ञान हो - विवेक हो, उसे ही 'ज्ञानी' कहते हैं। ज्ञान और विवेक के अन्तर को समझने के लिए एक युक्ति यह भी है कि शास्त्रों में ज्ञान के मतिज्ञानादि भेद किये हैं। विचार करना चाहिए कि क्या उन्हें हम विवेक के आठ भेद होते हैं'- ऐसा कह सकते हैं? यदि नहीं. तो अवश्य ही 'ज्ञान' और 'विवेक' में महान् अन्तर है। सारांशत: हमें समझना चाहिए कि विवेक ही (स्व-पर-भेदविज्ञान) ही सुख का कारण है, मोक्षमार्ग है और उपादेय है। आज तक जितने भी जीव सुखी (सिद्ध) हुये हैं वे सब एक स्व-पर-भेदविज्ञान से ही हुये हैं और जितने भी संसार में परिभ्रमण करते हुये दु:ख उठा रहे हैं, वे सब इस स्व-पर-भेदविज्ञान के अभाव के कारण ही। कहा भी गया है कि- “भेदविज्ञानत: सिद्धा: सिद्धा: ये किल केचन् । अस्यैवाभावतो बद्धा: बद्धा: ये किल केचन् ।।" -(आचार्य अमृतचन्द्र, आत्मख्याति-कलश) 1. श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली के व्याकरण-विभाग के विद्वान् प्राध्यापक डॉ. जयकान्त शर्मा ने मुझे 'विवेक' शब्द की निष्पत्ति इसप्रकार समझाई है—“विविच्यतेऽनेनेति विवेक: । विविनक्ति सत्यासत्यं यथार्थायथार्थ कार्याकार्य ग्राह्याग्राह्ययमिति वा विवेकः । 'वि' उपसर्गाद् 'विच्' धातो: घञ् प्रत्यये अनुबन्धलोपे 'चजो कुः घिण्यतो:' इति सूत्रेण कुत्वे गुणे च इति 'विवेक' शब्द-निष्पत्तिः।" इसका अभिप्राय है कि जो सत्य और असत्य, यथार्थ और अयथार्थ, कार्य और अकार्य अथवा ग्राह्य और अग्राह्य का भेद बताता है वही विवेक है। 'प्राकृतविद्या' के प्रस्तुत अंक के मुख-पृष्ठ पर चित्रित हंस नीर-क्षीर-विवेक का ही प्रतीक है, सामान्य-ज्ञान का नहीं। 0066 . . . प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002

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