Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ की पुष्टि-हेत प्रदर्शन करते हैं। यह पर-परिणाम जड़ है और आत्मा चेतन, अत: विरोधी- अस्तित्वों की एकतानता के प्रयास में व्यक्ति संक्लेशित होता है और अज्ञानवश और अधिक बहिर्मुखी बनता चला जाता है और अपने स्वाभाविक आत्मगुणों से वंचित हो जाता है। यह भटकन मनुष्य को अशान्त बना देती है, इसलिये आचार्यदेव का कथन है कि हमें दर्शनशास्त्र का अनुशीलन कर अन्तर्मुखी बनना चाहिये। शास्त्र शान्त बनाता है और प्रदर्शन अशान्त। । __ प्रदर्शन पर पदार्थों की अधीनता स्वीकार करने पर मजबूर करता है, जिससे आत्मस्वतन्त्रता आहत होती है। प्रदर्शन अनात्म-पदार्थों में आत्मभ्रम उत्पन्न कर मोह बढ़ाता है, जिससे अधोगति के अन्धकूप में गिरना पड़ता है। प्रदर्शन से बहिर्मुखी-वृत्ति का प्रसार होता है और प्रदर्शनकारी 'बहिरात्मा' बना रहता है। प्रदर्शनकारी प्रशंसा सुनने-हेतु आतुर रहता है; अत: आकुल-व्याकुल रहता है। प्रदर्शन तो परपदार्थ या जड़पदार्थ का ही हो सकता है, आत्मा या चेतन का नहीं; अत: प्रदर्शन कदापि स्वस्थ नहीं बनाता। दर्शन सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट का बोध कराने की सामर्थ रखता है अत: हमें दर्शन के महत्त्व को अंगीकार कर दर्शनशास्त्र का अध्ययन करना चाहिये। सृष्टि बदले या न बदले, हमें अपनी दृष्टि बदलनी चाहिये, बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी करनी चाहिये, जड़ की पकड़ को छोड़कर जीवमात्र के चैतन्य का दर्शन करना चाहिये तभी प्रदर्शन की व्यर्थता स्वत: ज्ञात हो जाएगी और तब क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से और लोभ को संयम से जीतकर वृत्ति-परिमार्जन कर लेना चाहिये। हमारी दृष्टि में जब विश्व का पूरा परिवेश, जल-पृथ्वी-अग्नि-वायु-वनस्पति सभी चेतन नज़र आने लगेगा, तब हम उसके प्रति संवेदनशील बनेंगे और इनके लिये संभावित युद्ध या हिंसा से बच सकेंगे। जब सर्वत्र परिवेश में चेतन पर दृष्टिपात होगा, हमें कोई हमने भिन्न नज़र नहीं आएगा, तब हम दूसरों के हनन में अपना हनन देखेंगे और हिंसा से बच सकेंगे। यह दर्शनशास्त्र का अन्तर्मुखीकरण होगा। ग्रन्थ-सूची 1. 'णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि।'—पंचास्तिकाय, गाथा 172 2. 'आत्मनश्चैतन्यानुविधायी परिणाम उपयोग:।'-अमृतचन्द्र टीका, पंचास्तिकाय, गाथा 40% भ्रान्ति का जगद्-रुप 'मृगतृष्णायामुदकं, शुक्तौ रजतं भुजंगमो रज्वां। तैमिरिक चंद्रयुग्मवत्, भ्रांतमखिलं जगद्रूपम् ।। -(महाभाष्य, 4, पृष्ठ 19) अर्थ :- मृगतृष्णा में जल का भ्रम, सीप में चाँदी का भ्रम, रस्सी में साँप का भ्रम एवं तैमिरिक में चंद्रयुग्म (दो चन्द्रमा) का भ्रम होता है। इससे प्रतीत होता है कि इस संसार का स्वरूप ही भ्रांतिमय है। 0064 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116