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दर्शन-शास्त्र अन्तर्मुखी बनाता है और प्रदर्शनबहिर्मुखी
-डॉ. सुषमा सिंघवी कुन्दकुन्दाचार्य रचित प्राकृत-ग्रन्थों का सार है___ “णियदंसणं हि दंसणं” अर्थात् निजदर्शन ही दर्शन है। निज का, निज के लिये. निज के द्वारा अनुभूत-दर्शन वास्तविक दर्शन है। यह स्वदर्शन अन्तर्मुखी-मनोवृत्ति का फल है। परपदार्थ की ओर दृष्टि होना प्रदर्शन है। स्वचैतन्य से भिन्न परपदार्थों (शरीर-पात्र-सम्पत्ति- साधन-सत्ता आदि) का, स्वयं से भिन्न दूसरों (पर) के लिये दर्शन कराना (दिखाना) प्रदर्शन है। प्रदर्शन बहिर्मुखी-मनोवृत्ति का फल है।
'दर्शन' और 'प्रदर्शन' क्रमश: स्वभाव' और 'विभाव' के दो नाम हैं, सूक्ष्म और स्थूल के दो वर्तुल हैं; द्रव्य और पर्याय, अन्त: और बाह्य, निश्चय और व्यवहार, अपने और पराए के प्रतिपादक हैं। 'दर्शन' स्वयं की चेतना का अनुभव है और प्रदर्शन' पुद्गल-निर्मित पर- पदार्थों के कर्तृत्व का मिथ्या-अभिमान । आज यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि हमें अन्तर्मुखी बनकर 'दर्शन' करना है या बहिर्मुखी बनकर 'प्रदर्शन'?
भगवान् महावीर ने कहा- तुममेव तुमं मित्तं किं बहिया मित्तमिच्छसि' अर्थात् तुम स्वयं अपने मित्र हो, बाहरी मित्र की इच्छा क्यों करते हो? स्वयं से मित्रता करने हेतु दर्शन की आवश्यकता है, अन्तरात्मा की जागृति जरूरी है और अन्तर्मुखी बनना होता है। बाहर से मित्र बनाने का इच्छुक प्रदर्शन की जरूरत महसूस करता है, बहिरात्मा बना रहता है और बहिर्मुखी बनता है। जैनदर्शन में 'अप्पा कत्ता विकत्ता या सुहाण य दुहाण य' कहकर हमारे पुरुषार्थ को अन्तर्मुखी करने पर बल दिया है। अन्तर्मुखी बनने में दर्शन-शास्त्र सहायता करते हैं, इससे यह पुष्ट होता है कि स्व-स्वातन्त्र्य 'उपादेय' है। बहिर्मुखी बनने की परतन्त्रता हेय' है। पर-पदार्थों की पराधीनता से ग्रसित प्रदर्शन को स्वीकार नहीं किया गया है। आचार्य-ऋषियों का स्पष्ट निर्देश है कि हमारा पुरुषार्थ अन्तर्मुखी बनाकर आत्म- स्वतन्त्रता की दिशा में होना चाहिये, हमें परतन्त्रता तो ईश्वर की भी स्वीकार्य नहीं। (जैनदर्शन ईश्वर के जगत्कर्तृव को नहीं मानता है।) पुद्गल आसक्ति-प्रधान बहिर्मुखी-वृत्ति हमारा लक्ष्य नहीं है।
हम आत्मवान् बनें या आत्मघाती —यह हमारी वृत्तियों के अन्तर्मुखी या बहिर्मुखी
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प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002