________________
ज्ञान और विवेक
-डॉ. वीरसागर जैन
'ज्ञान' और 'विवेक' –ये दो शब्द ऐसे हैं जो ऊपर-ऊपर से देखने पर समान अर्थ वाले प्रतीत होते हैं, किसी स्थूल अपेक्षा से इन्हें समानार्थक कहा भी जा सकता है, परन्तु सूक्ष्मता से देखा जाये तो वस्तुत: ये दोनों शब्द समानार्थक नहीं हैं, इनमें महान् अन्तर है। अत: हमें इनका प्रयोग विवेकपूर्ण करना चाहिये।
हमारे प्राचीन आचार्यों ने भी इन दोनों शब्दों का प्रयोग बहुत विवेकपूर्वक किया है। जहाँ जो उपयुक्त है, वहाँ उसी का प्रयोग किया है।
व्याकरणशास्त्र के अनुसार 'ज्ञान' शब्द 'ज्ञा' धातु से बना है जिसका अर्थ हैजानना। किन्तु 'विवेक' शब्द 'विच्' धातु से बना है, जिसका अर्थ पृथक्भाव होता है—भेद करना होता है; विभजनं विवेक: । “ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं", किन्तु “विविच्यतेऽनेनेति विवेकः।" - अर्थात् ज्ञान का कार्य मात्र जानना है, परन्तु विवेक का कार्य मात्र जानना नहीं अपितु हेय-उपादेय, स्व-पर आदि का भेद जान ना है। यथा—स्व-पर-विवेक, नीर-क्षीर-विवेक' इत्यादि प्रयोग लोकप्रचलित भी हैं। इनमें 'विवेक' के स्थान पर 'ज्ञान' शब्द का प्रयोग उपयुक्त नहीं है। आचार्यों ने कहा है
"चिज्जडयोर्भेदविज्ञानं विवेकः।" अर्थात् चेतन व अचेतन का भेदविज्ञान ही विवेक है।
मोक्षमार्ग में इसी विवेक की उपयोगिता है, कोरे ज्ञान की नहीं। अध्यात्मप्रेमी कविवर पं. दौलतराम भी देवस्तुति' में लिखते हैं:__ "तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक । प्रगटै विघटें आपद अनेक।।"
अर्थात् हे जिनेन्द्रदेव ! आपके गुणों के चिंतन स्व-पर-विवेक प्रकट होता है और उसी से अनेक आपत्तियाँ दूर होती हैं।
तात्पर्य यही है कि सुख-शान्ति का कारण विबेक है, ज्ञान नहीं।
यद्यपि शास्त्रों में अनेक स्थानों पर ज्ञान को भी सुख का कारण कहा गया है, परन्तु वह धन-कन-कंचनादि भौतिक परपदार्थों से ध्यान हटाने के लिए ही कहा गया है कि हे जीव ! तू धनादि परपदार्थों को सुख का कारण मान रहा है, पर वास्तव में वे सब सुख
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
0065