Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 47
________________ 1. वर्णसमाम्नाय कातन्त्र “सिद्धो वर्णसमाम्नाय:” –(1/1/1)। लोकव्यवहार में प्रसिद्ध वर्णसमाम्नाय इसमें स्वीकार किया गया है। संस्करणभेद से 48, 50 तथा 53 वर्गों का इसके अन्तर्गत पाठ मिलता है। __ अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लु, ए, ऐ, ओ, औ, - (अनुस्वार), : (विसर्ग)। (जिह्वामूलीय), (उपध्मानीय)। क, ख, ग, घ, ङ्, च्, छ्, ज, झ, ञ्, ट, ठ, ड, ढ्, ण, त्, थ्, द्, ध्, न्, प, फ्, ब्, भ, म्, य, र, ल, क्, श्, ए, स्, ह, क्ष्, प्लुत (53)। कच्चायन- “अक्खरा पादयो एकचत्तालिसं" – (1/1/2) । इसमें 41 वर्ण पढ़े गए हैं अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ, क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, स, ह, (निग्गहीतं), ळ (मराठी-ल)। समीक्षा- शाब्दिक आचार्यों द्वारा जो वर्ण जिस क्रम से स्वीकार किये गये हैं, उनके पाठ को वर्णसमाम्नाय, अक्षरसमाम्नाय अथवा वाक्समाम्नाय कहते हैं। समग्र वाङ्मय की दृष्टि से नित्याषोडशिकार्णव-तन्त्र' में 16, पाणिनीय व्याकरण' में 42 तथा वेदों में 6364 वर्ण माने गये हैं। 2. स्वरसंज्ञा कातन्त्र- “तत्र चतुर्दशादौ स्वरा:" – (1/1/2)। उक्त वर्णसमाम्नाय के प्रारम्भिक 14 वर्णों की 'स्वर' संज्ञा होती है- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लु, ल, ए, ऐ, ओ, औ। कच्चायन- “तत्थोदन्ता सरा अट्ठ" – (1/1/3)। इसमें 8 वर्गों की स्वरसंज्ञा की गई है— अ, आ, इ, ई, उ ऊ, ए, ओ। समीक्षा- दो प्रकार के प्रमुख वर्गों में स्वर' उन्हें कहते हैं, जिनके उच्चारण में अन्य की अपेक्षा नहीं होती है- “स्वयं राजन्ते स्वराः।" भिन्न-भिन्न व्याकरणों में हस्व- दीर्घ-प्लुत आदि के भेद से इनकी संख्या में भिन्नता देखी जाती है। 3. ह्रस्वसंज्ञा कातन्त्र- “पूर्वो ह्रस्व:" – (1/1/5)। 'एकमात्रिक स्वरवर्ण की हस्व-संज्ञा की गई है— 'अ, इ, उ, ऋ, लु' । कच्चायन- “लहुमत्ता तयो रस्सा" – (1/114) इसमें केवल 3 वर्गों की हस्व-संज्ञा होती है— 'अ, इ, उ' । समीक्षा- उदात्त-अनुदात्त-स्वरित तथा सानुनासिक-निरनुनासिक भेद से इस्व छह प्रकार का होता है। निरुक्त-गोपथब्राह्मण-ऋक्प्रातिशाख्य' आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी यह संझा उपलब्ध होती है। 'चान्द्रव्याकरण' आदि अर्वाचीन व्याकरणों में भी यह संज्ञा की प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 00 45

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