Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 48
________________ गई है। इस्व की लघुसंज्ञा' भी की जाती है। 4. दीर्घसंज्ञा कातन्त्र– “परो दीर्घ:" – (1/1/6)। सवर्णसंज्ञक 10 वर्षों में परवर्ती 5 वर्गों की 'दीर्घ' संज्ञा होती है— 'आ, ई, ऊ, ऋ, लु' । कच्चायन- “अझे दीघा” –(1/1/5)। इसके अनुसार दीर्घसंज्ञक 5 वर्ण इसप्रकार हैं- 'आ, ई, ऊ, ए, ओ'। समीक्षा- 'उदात्त' आदि भेद से दीर्घ छह प्रकार का होता है। कातन्त्रव्याकरण में 'ए, ऐ, ओ, औ' की सन्ध्यक्षरसंज्ञा के अतिरिक्त दीर्घसंज्ञा भी मानी जाती है। ऋक्प्रातिशाख्यऋक्तन्त्र-गोपथब्राह्मण आदि प्राचीन ग्रन्थों में तथा चान्द्रव्याकरण आदि अर्वाचीन-ग्रन्थों में भी इस संज्ञा का उल्लेख मिलता है। कातन्त्रकार आचार्य शर्ववर्मा ने सवर्णसंज्ञक दो-दो वर्गों में से पूर्ववर्ती वर्गों की 'हस्वसंज्ञा' तथा परवर्ती वर्गों की दीर्घसंज्ञा' की है। इस विषय में क्षितीशचन्द्र चटर्जी द्वारा उद्धृत एक श्लोक द्रष्टव्य है (T.T.A.T.O.S.G., Vol. 1, P.192) पूर्वो हस्व: परो दीर्घ: सतां स्नेहो निरन्तरम् । असतां विपरीतस्तु पूर्वो दीर्घ: परो लघुः ।। दीर्घ की 'गुरु' संज्ञा भी की जाती है। 5. व्यंजनसंज्ञा कातन्त्र- "कादीनि व्यञ्जनानि" -(1/1/9)। 34 वर्णों की व्यञ्जन' संज्ञा की गई है— क, ख, ग, घ, ङ। च, छ, ज, झ, ञ। ट, ठ, ड, ढ, ण। त, थ, द, ध, न। प, फ, ब, भ, म। य, र, ल, व। श, ष, स, ह, क्ष।' ___ कच्चायन– “सेसा व्यञ्जना” — (1/1/6) । इसके अनुसार 33 वर्णों की व्यञ्जनसंज्ञा होती है— क, ख, ग, घ, ङ। च, छ, ज, झ, ञ। ट, ठ, ड, ढ, ण । त, थ, द, ध, न । प, फ, ब, भ, म। य, र, ल, व। स, ह, ळ, अं। समीक्षा— स्वरों का अनुसरण करने के कारण अथवा स्वरप्रतिपाद्य-अर्थों को द्योतित करने के कारण 'क' से 'ह' या 'क्ष' तक की व्यञ्जन-संज्ञा की जाती है'व्यज्यन्ते एभिरिति व्यञ्जनानि' । ऋक्प्रातिशाख्य, गोपथब्राह्मण, नाट्यशास्त्र आदि प्राचीन ग्रन्थों में पूर्वाचार्यों द्वारा इस संज्ञा का व्यवहार किया गया है। ऋक्प्रातिशाख्य' के 'उव्वट-भाष्य' में व्यञ्जन की परिभाषा की गई है . 'व्यञ्जयन्ति प्रकटान् कुर्वन्त्यानिति व्यञ्जनानि” – (उ.भा. 1/6)। पाणिनि ने एतदर्थ हल्' प्रत्याहार का व्यवहार किया है। कातन्त्रकार ने संयोगसंज्ञक वर्णो से निष्पन्न होनेवाले वर्गों के निदर्शनार्थ 'अ' वर्ण को भी स्वीकार किया है। इसका समर्थन शंकराचार्यकृत 'अन्नपूर्णास्तोत्र' के इस वचन से होता है 00 46 प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002

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