Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 21
________________ इतने प्रबल-वेग से चारों ओर फैलनेवाला बौद्धधर्म अशोक, कनिष्क तथा हर्ष सरीखे प्रतापी सम्राटों का प्रश्रय पाकर भी क्यों नामशेष हो गया? और जैनधर्म की स्थिति क्यों यथावत् बनी रही? __ संक्षेप में यहाँ इतना ही कहना पर्याप्त होना चाहिए कि जैनधर्म का रूप व्यावहारिक-दृष्टि से निरन्तर साधनाप्रधान बना रहा और उसके इस रूप का भगवान् महावीर के बाद भी निरन्तर निखार होता रहा। 24 तीर्थंकरों द्वारा प्रश्रय-प्राप्त उत्क्रान्तिमूलक-परम्परा जैनधर्म में निरन्तर बनी रही और वह उसका निखार व परिष्कार करती रही। परन्तु बौद्धधर्म की स्थिति इससे सर्वथा विपरीत रही। उसमें हीनयान, महायान, मंत्रयान और वज्रयान आदि शाखाओं का प्रादुर्भाव उसके व्यावहारिकरूप को निरन्तर विकृत ही करता गया। परिणाम यह हुआ कि लोक-व्यवहार साधना-प्रधान न रहकर विषयवासना-प्रधान बन गया और वैसे ही बौद्धधर्म को ले डूबा, जैसे कि ब्राह्मणधर्म को भोगैश्वर्य-प्रधान कर्मकाण्ड ले डूबा। इस प्रकार जैनधर्म के अस्तित्व का मुख्य-आधार उसका साधनाप्रधान जीवन-व्यवहार है। सांस्कृतिक प्रयोगों का सार ____ अंत में संक्षेप में इतना कहना ही अभीष्ट है कि जैनधर्म का वर्तमानरूप मानव-जीवन में युगों तक किये गये सांस्कृतिक-प्रयोगों का सार अथवा निचोड़ है। उसको बिना किसी संकोच के परिवर्धनशील और इसीलिए परिवर्तनशील भी कहा जा सकता है। यह एक मत से स्वीकार किया गया है कि जिस धर्म को भगवान् महावीर के काल में 'जैन' नाम दिया गया, वह उनसे पूर्व भी विद्यमान था और उसको अन्य नामों से पुकारा जाता था। भगवान् नेमिनाथ और भगवान् पार्श्वनाथ के काल में उसको 'निर्ग्रन्थ' नाम से पुकारा जाता था। उनके काल में निर्ग्रन्थ-धर्म में अहिंसा के साथ-साथ तप और त्याग की भावना को अपरिहार्य-महत्त्व प्राप्त हुआ। बाहरी त्याग और तपस्या को आत्मशुद्धि तथा आत्मौपम्य साम्य-भावना की दृष्टि से जब पर्याप्त न समझा गया, तब आन्तरिक-वृत्तियों पर विजय पाने की आध्यात्मिक-भावना प्रबल हुई। भगवान् महावीर ने इस आध्यात्मिक-भावना को जीवन की साधना का प्रमुख-अंग बना दिया और मानव की आन्तरिक-प्रवृत्तियों पर पूर्ण-विजय प्राप्त करने के आदर्श को मूर्तरूप दे दिया। व्रतों तथा महाव्रतों की दृष्टि से जिस धर्म को केवल चार व्रत तथा महाव्रत होने के कारण से भी चातुर्याम' कहा जाता था, उसमें इस अध्यात्म-भावना के कारण पाँचवें व्रत तथा महाव्रत का समावेश हुआ और ये पाँचों व्रत तथा महाव्रत उसके मूलभूत-आधार बन गए। इसलिए यह स्वीकार करना होगा कि धर्म के विकासक्रम में वे भावनाएँ समाविष्ट होती रहती हैं, जो उत्तरोत्तर प्रकट होती हैं और मूलभूत-भावनाओं का विरोध न कर उनको प्रबल तथा सम्पुष्ट बनाने का ही काम करती है। धर्म-विकास का सम्पूर्ण इतिहास इसका साक्षी है और जिनधर्म का विकास-क्रम भी प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 2019

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