Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 15
________________ वक्ष्यामि ते गुरुपरम्परया प्रयातम् ।। 34।। गुरुसमय-नियोगात् प्रत्ययस्यापि हेतोः ।। 53 ।। गुरु की कृपा से ही अविनाशी ध्रुव. आत्मतत्त्व का ज्ञान और अनुभूति हो सकती है। ऐसा प्रतिपादन आचार्य योगीन्द्रदेव ने 'अमृताशीति' ग्रंथ के निम्नलिखित तीन पद्यों में किया है- ज्वर-जनन-जराणां वेदना यत्र नास्ति, परिभवति न मृत्यु गतिर्नोगतिर्वा । तदतिविशदचित्तै: लभ्यतेगेऽपि तत्त्वम्, गुरुगुण-गुरुपादाम्भोज-सेवाप्रसादात् ।। 56।। __अर्थ :- जो (तत्त्व) अकारादि स्वरों के समूह, विसर्ग, 'क' आदि व्यंजनाक्षरों आदि से रहित है; अहितकारी विभाव-परिणामों से रहित है, अविनाशी/नित्य है, संख्यातीत/अनन्त है; रस, अन्धकार, रूप, स्पर्श, गन्ध, जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि, अणुता-स्थूलता, दिशाओं के समूह (अर्थात् पूर्व-पश्चिम आदि क्षेत्र-भेद) से जो रहित है, (तथा) जहाँ ज्वर, जन्म, वृद्धावस्था की, वेदना नहीं है, (जहाँ) मृत्यु का प्रभाव नहीं है, गति-आगति-दोनों का जहाँ अभाव है; उस तत्त्व को श्रेष्ठ गुणोंवाले गुरुजनों के चरण-कमलों की सेवा के प्रसाद से अत्यन्त निर्मल मनवालों (साधकों) को (अपने) शरीर में भी प्राप्त हो जाता है। गिरि-गहनगुहाद्यारण्य-शून्यप्रदेश, स्थितिकरणनिरोध-ध्यान-तीर्थोपसेवाप्रपठन-जप-होमैर्ब्रह्मणो नास्ति सिद्धि:, मगय तदपरं त्वं भो ! प्रकारं गुरुभ्य: ।। 57 ।। अर्थ :-- पर्वतों, उनकी गहन गुफाओं एवं जंगल आदि के निर्जन-प्रदेशों में कायोत्सर्ग (स्थिति), इन्द्रियनिरोध, ध्यान (सरागी देवताओं का), तीर्थों के सेवन, (स्तोत्रादि के) पठन, जप, होम-इनसे; ब्रह्म (शुद्धात्म तत्त्व) की सिद्धि नहीं होती है; इसलिए हे शिष्य ! गुरुओं के पास रहकर दूसरे तरीके की खोज करो। दृगवगमनलक्ष्म स्वस्य तत्त्वं समन्ताद्, गतमपि निजदेहे देहिभिर्नोपलक्ष्यम् । तदपि गुरुवचोभिर्बोध्यते तेन देव:, गुरुरधिगततत्त्वस्तत्त्वत: पूजनीय: ।। 58।। अर्थ :- दर्शन व ज्ञान चिह्नवाले, निज परमात्मतत्त्व को, अपने शरीर में, शरीरधारी प्राणियों द्वारा, दृष्टिगोचर/अनुभूतिगम्य नहीं हो पाता है। वह (परमात्मतत्त्व) भी सद्गुरु के उपदेशों से ज्ञात हो जाता है। इस कारण से तत्त्वज्ञानी सद्गुरुदेव यथार्थत: पूजनीय हैं। साक्षात् गुरु की महिमा तो अचिन्त्य है ही, स्थापना-निक्षेप के अंतर्गत निर्मापित गुरु की प्रतिमा आदि भी कार्यसाधक होती हैं, ऐसे दृष्टांत भारतीय सांस्कृतिक ग्रन्थों में प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 00 13

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