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अञ्जन की शलाका से उन्मीलित किया, उन गुरुओं को नमस्कार है।
विशेषत: धर्मसाधना के क्षेत्र में तो गुरु की अनिवार्य आवश्यकता ज्ञानियों ने प्रतिपादित की है
“विना गुरुभ्यो गुणवान्नरोऽपि, धर्मं न जानाति विचक्षणोऽपि ।
आकर्णदीर्घोज्ज्वललोचनोऽपि, दीपं बिना पश्यति नान्धकारे ।।" – (नीतिसार) अर्थ :- तीक्ष्ण-बुद्धिवाला गुणवान पुरुष भी गुरु के बिना उसीप्रकार धर्म का स्वरूप ज्ञात नहीं कर सकता, जिसप्रकार कानों तक लम्बी सुन्दर और निर्दोष आँखों वाला व्यक्ति यदि अन्धकार में आँखों को फाड़-फाड़कर देखे, तो भी बिना दीपक के उसे वस्तु दृष्टिगत नहीं होती। इसी बात को इन छोटे-छोटे वाक्यों में भी स्पष्ट किया गया है
“गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचन:।" अर्थ :- गुरु की ही प्रसन्नता (कृपा) से ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त होता है। इसीलिए ज्ञानी-गुरु को संसाररूपी सागर से पार उतारनेवाला कहा गया है
___ "भवाब्धेस्तारको गुरुः।" – (क्षत्रचूड़ामणि, श्लोक, 2/30) अर्थ :- गुरु ही संसार-सागर से तारनेवाला है। ऐसे ज्ञानी-गुरु का स्वरूप इस पद्य में प्रभावी ढंग से निरूपित किया गया है
"गुरव: पान्तु वो नित्यं ज्ञानदर्शन-नायका:।
चारित्रार्णव-गम्भीरा मोक्षमार्गोपदेशका: ।।" – (दशभक्ति, पृष्ठ 160) अर्थ :- जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के नायक होते हैं, गम्भीर चारित्रसमुद्र और मोक्षपथ के उपदेष्टा होते हैं, ऐसे ज्ञानी-गुरु हमें जीवन में प्राप्त हों।
ऐसे गुरु के संसर्ग में समय कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता तथा इनके बिना जीवन भार के समान प्रतीत होता है
योगे वियोगे दिवसे गुरूणां, अणोरणीयान् महतो महीयान् ।” अर्थ :- गुरु के संयोग में दिन छोटे से छोटा होता है और वियोग में बड़े से बड़ा लगता है। ___ गुरु की महिमा बतानेवाले जैन-वाङ्मय में अनेकों उद्धरण प्राप्त होते हैं, जिनमें से . कुछ प्रभावी उद्धरण निम्नानुसार हैं
__ 'गुरु की महिमा वरनी न जाय।
गुरु नाम जपों मन-वचन-काय ।।' – दिव-शास्त्र-गुरु-पूजन) "गुरु दिणयरु गुरु हिमकिरणु गुरु दीवउ गुरु देउ। अप्पहँ परहँ परंपरहँ जो दरिसावइ भेउ ।।"
–(आचार्य योगीन्द्रदेव)
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002
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