Book Title: Prakrit Vidya 2002 10
Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain
Publisher: Kundkund Bharti Trust

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Page 11
________________ के विपरीत मार्ग) है, अधर्म है। आत्मधर्म से जो अविरोधी हो, वह वास्तविक धर्म है। वही सच्चा पुरुषार्थ है। भला प्रकाश प्रकाश का, अमृत अमृत का विरोधी कभी हो सकता है? कदापि नहीं, विरोध तो प्रकाश और अन्धकार में, अमृत और विष में हो सकता है। इसप्रकार धर्म का विरोधी तो अधर्म हो सकता है। जो विरोध/विसंवाद का पाठ पढ़ाये, वहं धर्म है ही नहीं, वह तो 'अधर्म' है। . परस्पर विरोध की बात जाति, संप्रदाय, वर्ग आदि की संकीर्णता में तो संभव है, 'धर्म' के वैश्विक उदाररूप में विरोध की संभावना ही नहीं है। अत: जो धर्म के नाम पर विरोध और वैमनस्य की बात करते हैं, वे साम्प्रदायिक हो सकते हैं, जातिवादी हो सकते हैं, वर्गविशेष के प्रचारक हो सकते हैं; किन्तु धर्मात्मा कभी नहीं हो सकते हैं। क्योंकि धर्मात्मा तो अहिंसक होता है, संयमी होता है, निरीहवृत्ति का धनी तपस्वी होता है। वर्तमान संदर्भो में 'धर्म' के स्वरूप के इस वैश्वरूप का मनन, चिंतन एवं अंगीकरण अनिवार्यत: अपेक्षित है। विश्वधर्म का स्वरूप शद्धोपयोगसिद्ध्यर्थं विश्वधर्मो विवेच्यते। अर्थ :- शुद्धोपयोग की सिद्धि के लिए गुरु स्वयं विश्वधर्म का निरूपण करते हैं। उत्तर :- धनस्य बुद्धेः समयस्य शक्तेः, नियोजनं प्राणिहिते सदैव । स्वाद्विश्वधर्म: सुखदो सुशान्त्यै, ज्ञात्वेति पूर्वोक्तविधिविधेयः ।। 242 ।। यतस्त्रिलोके स्वरसस्य पानं, स्याच्छुद्धचिद्रूपसुखस्य चर्चा । आचन्द्रतारार्कमितीह कीर्ति-ग्रह गृहे मंगलगीतवाद्यम् ।। 243 ।। ___ अर्थ :- भव्यजीवों को सदाकाल समस्त प्राणियों के हित के लिए ही अपने धन का, अपनी बुद्धि का, अपने समय का और अपनी शक्ति का उपयोग करना चाहिए। यही समस्त संसार का हित करनेवाला विश्वधर्म है। यही समस्त प्राणियों को सुख देनेवाला है और इसी धर्म को धारण करने से समस्त संसार को शांति प्राप्त होती है। यही समझकर समस्त जीवों को इस विश्वधर्म का पालन करते रहना चाहिये, क्योंकि इस विश्वधर्म का पालन करने से आत्मजन्य अनुपम-सुख की प्राप्ति होती है, चिदानंद-स्वरूप शुद्ध-आत्मा से उत्पन्न होनेवाले सुख की प्राप्ति होती है तथा (इसके परिणामस्वरूप) इस संसार में जब तक तारे और चन्द्रमा व सूर्य विद्यमान हैं, तब तक कीर्ति फैलती रहती है और तब तक ही घर-घर में मंगलगान होते रहते हैं। -(साभार उद्धृत, 'भावत्रयफलप्रदर्शी', लेखक- स्व. आचार्य शांतिसागर जी के शिष्य स्व. आचार्य कुन्थुसागर जी, पृष्ठ 240-241, हिन्दी अनुवादक- स्व. पण्डित लालाराम शास्त्री) प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002 009

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