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आडम्बरों का त्याग करके वस्तु-स्वभाव और आत्मस्वभाव पहिचानना और उसको पूर्वाग्रहरहित होकर स्वीकारना ही धर्मात्मा बनने की विधि है। इसीलिए आगमग्रन्थों में "वत्थुसहावो धम्मो" कहा गया है अर्थात् 'धर्म' वस्तु का स्वभाव है, समय और साधना से उसमें स्वत: प्रकट होगा, बाहर से नहीं लाना पड़ेगा। अहिंसा, संयम, तप, सत्य आदि आत्मा के स्वभाव हैं; इन्हें अपनाने से जीवन में स्वत: शांति एवं आनंद का वातावरण बनता है। इसके विपरीत हिंसा, झूठ आदि को अपनाने पर न तो आत्मा सुखी होता है
और न ही संयोग में विद्यमान शरीर भी उसे अनुकूल मानता है। शरीर में उच्च-नीच रक्तचाप, तनाव, अनिद्रा आदि अस्वास्थ्यकारी स्थितियों का जन्म हिंसा, झूठ आदि को अपनाने से ही होता है। अहिंसकवृत्ति अपनाने से जीवन में स्वत: सहज सुख-शांति का अनुभव होता है। क्योंकि “अत्ता चेव अहिंसा" अर्थात् है। आत्मा का स्वरूप ही अहिंसक है। साथ ही असत्य बोलने पर शरीर में रक्तचाप बढ़ जाता है, इसी आधार पर तो झूठ-पकड़नेवाली मशीन व्यक्ति के सत्य-असत्य-संभाषण की पहिचान करती है। संसार में कलह का वातावरण तभी निर्मित होता है, जब आत्मसंयम न हो। एक व्यक्ति यदि अपने उद्वेगों को संयमित रखे, तो दूसरे की कषायाग्नि भी अधिक देर तक प्रज्वलित नहीं रह सकती, उसे जलने के लिए हमारे प्रतिवादरूपी घी की आवश्यकता होती है। फिर भी हमारे ही मन में यदि परपदार्थों की इच्छा होगी, तो विवाद भी होगा। मात्र पाँच गाँवों को देने पर संतोष की बात कहनेवाले पांडवों की यदि इच्छा ही नहीं होती, तो क्या 'महाभारत' होता? और जब वे इच्छाओं का निरोध करने तपश्चरण के लिए शत्रुजयगिरि पर ध्यानस्थ थे, तो क्या कोई महाभारत हुआ? उल्टे महाभारत की कषाय से दहकते यवरोधन ने उनके ऊपर अंगीठी जलाकर अपना प्रतिशोध लेना चाहा, तो उन्होंने अपनी . क्षमारूपी जलधारा से उसका शमन कर स्व-पर-कल्याण का पथ प्रशस्त कर दिया था। अत: इच्छाओं को उद्वेग/प्रसार ही कलहोत्पादक है, जबकि 'इच्छानिरोधस्तप:' धर्म का रूप होकर सुख-शांति का प्रसारक है। - ये अहिंसा, संयम, तप आदि आत्मधर्म हैं। इनको अपनाना, जागृत करना ही 'धर्म' है। इसके लिए कहीं जाने की, कोई वेष धारण करने की आवश्यकता नहीं है। मात्र आत्मस्वभाव का आश्रय लेने की अपेक्षा है। - आज जो 'धर्म' को लेकर पारस्परिक वैमनस्य का वातावरण बन रहा है, उसके बारे में मनीषीप्रवर डॉ. नामवरसिंह जी ने हाल ही में एक बहुत सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत किया है। 'महाभारत' ग्रंथ का 'धर्म' विषयक वह उद्धरण है
“धर्म यो बाधते धर्म, न च धर्म कुवर्त्म तत् ।
अविरोधात् तु सधर्म, स धर्म सत्यविक्रम: ।।" अर्थात् जो धर्म दूसरे को बाधा पहुँचाये, वह धर्म है ही नहीं, वह तो कुमार्ग (धर्म
प्राकृतविद्या अक्तूबर-दिसम्बर '2002