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तीसरा भाग साथ लेकर तीन खंडके विद्याधर, म्लेच्छ तथा देवताओं को अपने वशमें कर लिया। वे तीन खंडके स्वामी होकर रहने लगे।
(१९) श्रीकृष्णकी आयु एक हजार वर्षकी थी। दश धनुष ऊंचा शरीर था। नील कमलके समान शरीरका वर्ण था। चक्र, शक्ति, गदा, शंख, धनुष, दंड और तलवार ये उनके सात रत्न थे। उनके सोलह हजार रानियां थीं।
(२०) रत्नमाला, गदा, हल, मूसक ये चार महारत्न बलदेवके थे। उनके आठ हजार रानियां थीं।
(२१) एक समय कुछ यादवकुमार बाहर वनक्रीडाको गये थे। वे बहुत थक गये थे, प्यासकी पीड़ा उन्हें बहुत सता रही थी। उन सबने पास ही वावड़ी देखी। उस वावडीमें नगरकी सब शराव फैंक दी गई थी। उसके पानीको पीकर वे सब मदोन्मत्त होगये, उन्हें तन मनकी सुधि न रही। वे मस्त होकर जब लौटे तो उन्होंने द्वीपायन मुनिको देखा । द्वीपायन मुनिके द्वारा द्वारिका जलेगी ऐसा उन्होंने भगवान नेमिनाथ के समवशरणमें सुना था । इसलिए मुनिको देखकर उनके मन में क्रोध पैदा हुआ। वे द्वीपायनको पत्थरोंसे मारने कगे। मुनिराज बहुत देर तक मारको शांत भावसे सहते रहे परन्तु जब पत्थरोंकी मार और गालियोंकी वर्षा अधिक बढ़ती गई तब उन्हें क्रोध भागया। उन्होंने संकल्प किया कि मेरे योग बलसे यह सारी द्वारिका भस्म होजावे । उनके इतना कहते ही शरीरसे एक मनिका पुतला निकला और उसने सारी द्वारिकाको भस्म कर दिया। केवल श्रीकृष्ण, बलराम और जरत्कुमार ही बचे ।