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तीसरा भाग
शांत हो चली थी, इसलिये भोजन उत्तरोत्तर अधिक परिमाणमें बचने लगा । समंतभद्रने साधारणतया इस शेषान्नको देव प्रसाद बतलाया; किंतु राजाको उससे संतोष न हुआ। अगले दिन राजाने शिवालयको सेनासे घेर लिया और दरवाजा खोल देनेकी आज्ञा दी । दरवाजा खुलने की आवाज सुनकर समंतभद्रको भावी उपसर्गका निश्चय होगया । उन्होंने उपसर्गकी निवृत्ति पर्यंत भन्न जळका त्याग कर दिया और वे शांतचित्तसे श्री चतुर्विंशति तीर्थकरोंकी स्तुति करने में लीन होगये । स्तुति करते हुये समन्तभद्रजीने जब मठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभस्वामीकी स्तुति करके भीमलिंगकी ओर दृष्टि की तो उन्हें उस स्थानपर किसी दिव्यशक्तिके प्रतापसे चन्द्रलांछन युक्त त भगवानका एक जाज्वल्यमान सुवर्णमय विशुद्ध बिंव प्रगट होता दिखलाई दिया । इतने में किवाड भी खुल गये थे : राजा भी इस चमत्कारको देखकर दंग रह गया और वह अपने छोटे भाई शिवायन सहित समंतभद्र के चरणोंमें गिर पड़ा । जब स्वामीजी २४ भगवानों की स्तुति पूरी कर चुके, तब उन्होंने उनको आशीर्वाद देकर धर्मो |देश दिया । राजा उसे सुनकर प्रतिबुद्ध होगया और अपने पुत्र 'श्रीकण्ठ' को राज्य देकर 'शिवायन' सहित दिगम्बर जैन मुनि होगया । राजाके साथ और भी बहुत से लोग जैनधर्म की शरण में आए। यही शिवकोटि मुनि मुनि उपरांत एक बड़े आचार्य हुये और इनका रचा हुआ साहित्य भी उपलब् है । धन्य हैं स्वामी समन्तभद्र, जिन्होंने आपत्कालमें भी जनधर्मकी अपूर्व प्रभावना की और भजैन भव्योंको जैन धर्म में दीक्षित किया।