Book Title: Prachin Jain Itihas Part 03
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 136
________________ ११९ तीसरा भाग पाठ २९। श्रीमद्भट्टाकलङ्क देव। 'श्रीमद्भट्टाकलङ्कस्य पातु पुण्या सरस्वती । अनेकांतमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥-ज्ञानार्णव । (१) दिगम्बर जैन सम्बदायमें समन्तभद्रस्वामीके बाद जितने नैयायिक और दार्शनिक विद्वान हुए हैं, उनमें अकलङ्कदेवका नाम सबसे पहले लिया जाता है। उनका महत्व केवल उनकी ग्रन्थ रचनाओं के कारण ही नहीं है, उनके अवतारने जैन धर्मकी तात्कालिक दशापर भी बहुत बड़ा प्रभाव डाला था। वे अपने समयके दिग्विजयी विद्व न थे। जैनधर्मके भनुयायियोंमें उन्होंने एक नया जीवन डाल दिया था। यह उन्हीं के जीवनका प्रभाव था जो उनके बाद ही कर्नाटक प्रांत में विद्यानंदि, प्रभाचन्द्र, माणिक्यनंदि, वादिसिंह, कुमारसेन जैसे बीसों तार्किक विद्वानोंने जैनधर्मको बौद्धादि प्रबल प्रतिवादियों के लिए मजेय बना दिया था। उनकी ग्रन्थ-रचयिताके रूपमें जितनी प्रसिद्धि है, उससे कहीं अधिक प्रसिद्ध वाग्मी ( वक्ता ) या वादीके रूपमें थी। उनको वक्तृत्व शक्ति या सभामोहिनी शक्तिकी उपमा दी जाती है । महाकवि वादिराजकी प्रशंसामें कहा गया है कि वे सभामोहन करनेमें मकलङ्क देवके समान थे। (२) प्रसिद्ध विद्वान् होने के कारण अकलक देव 'भट्टाकलङ्क' के नामसे प्रसिद्ध थे। ' भट्ट' उनकी एक तरह की पदवी थी।

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