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प्राचीन जैन इतिहास । १२४
भावार्थ- 'जिसने घडेमें बैठकर गुप्तरूपमें शास्त्रार्थ करनेवाली तारादेवीको बौद्ध विद्वानों के सहित परास्त किया। और जिसके चरणकमलोंकी रजमें स्नान करके बौद्धोंने अपने दोषोंका प्रायश्चित्त किया, उस महात्मा अकलङ्कदेवकी प्रशंसा कौन कर सक्ता है ?"
" सुनते हैं उन्होंने एकवार अपने अनन्य साधारण गुणों का इस तरह वर्णन किया था-"
" साहसतुंग (शुभतुंग) रेश, यद्यपि सफेद छत्रके धारण करनेवाले राजा बहुत हैं, परन्तु तेरे समान रणविजयी और दानी राजा और न हीं। इसी तरह पण्डित तो और भी बहुतसे हैं, परन्तु मेरे समान नाना शास्त्रों का जाननेवाला पण्डत, कवि, वादीश्वर और वाग्मी इस कलिकालमें और कोई नहीं !"
राजन् ! जिस तरह तू अपने शत्रुओंका अभिमान नष्ट करने में चतुर है उसी तरह मैं भी पृथ्वी के सारे पण्डितोंका मद उतार देने में प्रसिद्ध हूं। यदि ऐसा नहीं है तो तेरी सभामें जो भनेक बड़े विद्वान मौजूद हैं उनमें से किसीकी शक्ति हो तो मुझसे वाद करे ।"
"मैंने राजा हिमशीतल की सम में जो सारे बौद्धोंको हराकर तारादेवीके घड़ेको फोड़ डाला, सो यह काम मैंने कुछ अहंकारके वशवर्ती होकर नहीं किया, मेरा उनसे द्वेष नहीं है। किंतु नैरात्म्य (आत्मा कोई चीज नहीं है) मतके प्रचारसे लोग नष्ट हो रहे थे, उनपर मुझे दया भाई और इसके कारण मैंने बौद्धोंको पराजित किया।"